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________________ जैनधर्म की समाजवादी अर्थव्यवस्था (आदिपुराण के परिप्रेक्ष्य में) -डॉ. श्रीमती कृष्णा जैन आर्थिक जीवन किसी भी समाज की सर्वतोन्मुखी अभिवृद्धि का आधार होता है। पुरुषार्थों में "अर्थ" की गणना भी इस तथ्य की ओर संकेत करती है। दुर्भाग्यवश भारतीय चिंतन परंपरा को आध्यात्मिक या पारलौकिक करार देते हुए आर्थिक-विमर्श के लिए अनुपादेय घोषित कर दिया जाता है। इस तरह का भ्रम आधारहीन है और तथ्यों की अनदेखी कर प्रचलित हुआ है। भारतीय समाज और इसकी सांस्कृतिक प्रथाएँ तथा परम्पराओं की जड़ें गहरी हैं और उनमें निरंतरता है। पाश्चात्य विचारों के प्रभुत्व तथा औपनिवेशिक मानसिकता के कारण ये आवरण से आच्छादित हो गयी हैं और उन्हें सुग्राह्य ढंग से उपस्थित करना आज की एक महत्त्वपूर्ण बौद्धिक चुनौती है। ऐसा करना मात्र आत्मश्लाघा न होकर भारतीय यथार्थ की दृष्टि से पर्यालोचन और आवश्यक परिष्कार का मार्ग प्रशस्त करेगा। इस प्रकार का प्रयास ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में आरंभ हुआ है। देशज ज्ञान परंपरा का पुनराविष्कार और अनुसंधान देश को आत्मनिर्भर बनाने में भी सहायक सिद्ध हो रहा है। महाकवि आचार्य जिनसेन द्वारा रचित आदिपुराण 9 वीं शताब्दी की सर्वोत्तम कृति है। यह पुराण इतिहास, अध्यात्म, समाजशास्त्र, अर्थव्यवस्था, कोशग्रन्थ एवं एक उत्कृष्ट महाकाव्य के धरातल पर पूर्णतया खरी उतरने वाली दिक्कालजयी कृति है। यह भारत एवं भारतीय जीवन का विश्वकोष है। जैन परंपरा में मानते हैं कि पहले यौगलिक युग था उसमें समाज जैसी व्यवस्था नहीं थी इसको हम प्राकृतिक स्थिति भी कह सकते हैं। एक जोड़ा जन्म लेता था वह सहज संयम जीवन जीता फिर अंतिम समय में दूसरे जोड़े को जन्म देकर विदा हो जाता। उस समय न कोई व्यापार, न व्यवसाय, न राज्य शासन, कुछ भी नहीं था। लेकिन जब तीसरा कालखंड समाप्त हो गया तो संतति का विकास होने लगा, आबादी बढ़ी, समस्यायें भी बढ़ने लगीं। परिग्रह बढ़ा तो संघर्ष भी बढ़े। छोटे-छोटे कुल बनाये गये, कुछ नियम कानून बने। जहाँ यौगलिक व्यवस्था में सब स्वशासित थे, स्वराज्य था या पूर्ण लोकतंत्र था लेकिन जब कुलकर की व्यवस्था हुई तो एक नेतृत्व, एक व्यवस्था कायम हुई। भगवान् ऋषभदेव पन्द्रहवें कुलकर माने गए हैं। भगवान् ऋषभदेव के समय कृषि युग का प्रारंभ हुआ था, उनका उपदेश था कृषि करो या ऋषि बनो। कृषि का प्रादुर्भाव सात्त्विक रहस्य था कि यदि अन्न के अभाव में प्रजा का भक्ष्याभक्ष्य विवेक भी लुप्त हो जाय तो अन्न के अभाव में चरित्र का रोग उत्पन्न हो सकता है-बुभुक्षितः किं न करोति पापम्। ऋषि के अवतरण का अर्थ है-समाज व्यवस्था का अवतरण, कला का अवतरण,
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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