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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 21 कर यह बताया कि जो सभ्यतायें भोगवादी थीं, उनका नामोनिशान नहीं है। अभाव निवारण आवश्यक है जिसके लिए अर्थ प्रबन्धन जरूरी है, लेकिन भोगवाद को कम करने के लिए तो धर्म का ही अंकुश चाहिए। ऋषभदेव ने कृषि, वाणिज्य, सुरक्षा और शासन व्यवस्था दी जिससे समाज सुव्यवस्थित हो, लेकिन साथ-साथ सामाजिक विषमता के निराकरण के लिए त्याग और अंत में विनीता के राज्य एवं राजमहल का त्याग कर संन्यास । ऋषभदेव ने समता धर्म का प्रवर्तन किया। अपनी दोनों पुत्रियों (ब्राह्मी और सुन्दरी) को कर्मभूमि युग के प्रारंभ में भगवान् सर्वप्रथम विद्या प्रदान की । पुत्री ब्राह्मी को लिपि अर्थात् वर्णमाला का ज्ञान कराके ज्ञान के सामाजिक, नैतिक एवं व्यावहारिक क्षेत्रों की पुष्टि की नींव डाली तो दूसरी ओर सुन्दरी को अंकों का (1,2,3 आदि) का ज्ञान कराके अर्थशास्त्र और गणित विद्या के द्वार खोले । इससे पूर्व जनता घोर अज्ञान में डूबी थी। प्रभु ने पुत्रियों को उपदेश दिया " इत्याक्रीड्यक्षणं भूयोऽप्येवमाख्यद्गिरांपतिः । युवां युवजत्यौ स्थः शीलेन विनयेन च।। इदं वपुर्वयश्चेद् इदं शीलमनीदृशम् । विद्यया चेद् विभूषयेत सफलं जन्म वामिदम् ॥ विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मतिं याति को विदैः । नारी च तद्वती धत्ते स्वीसृष्टेरग्रिमं पदम् ॥' विद्या यशस्करी पुंसां विद्या श्रेयस्करी मता सम्यगाराधिता विद्यादेवता कामदायिनी॥" अर्थात् तुम दोनों अपने शील और गुणों के कारण युवावस्था में ही वृद्धा के समान हो (ज्ञान वृद्ध हो) तुम दोनों का यह सुन्दर शरीर, यह अवस्था और अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित कर दिया जाए तो तुम दोनों का जीवन पूर्णतया सार्थक हो सकता है। इस लोक में विद्यावान् पुरुष पंडितों में भी सम्मानित होता है और विद्यावती नारी भी सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त करती है। विद्या ही समस्त मनोरथों की जननी है। विद्या ही कामधेनु है, चिंतामणि है। भगवान् ने कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर और कर्मभूमि के प्रकट होने पर असहाय प्रजा को असि मसि, कृषि आदि छह कर्मों द्वारा आजीविका निर्वाह का मार्ग बताया। प्रभु इस व्यवस्था के सृजन से प्रजापति कहलाए। अनेक गांवों, नगरों में प्रजा को बसाया। उनका राज्याभिषेक हुआ। जैसा सर्वविदित है कि कर्म के आधार पर ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के वर्ण निर्धारित किये। बाद में भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की रचना विद्याग्रहण और विद्यादान के आधार पर की। व्रती और चारित्रवान् व्यक्तियों को ही ब्राह्मण के रूप में मान्यता मिली। गुण और कर्म को महत्त्व देते हुए जिनसेनाचार्य ने वर्णव्यवस्था पर प्रकाश विकीर्ण किया है "मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताद् भेदाच्यातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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