SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 90 अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 समझाने का प्रयास किया है। वस्तुतः कोई लाइन न छोटी होती है और न बड़ी, अपितु सापेक्षदृष्टि से विचार करने पर ही लाइन छोटी अथवा बड़ी होती है। 'ही' और 'भी'- इन दो पदों के माध्यम से मुख्तार साहब ने स्पष्ट किया है कि 'भी' पद अनेकान्तवाद का द्योतक है, जबकि 'ही' पद हमारी एकान्तवादिता या हठवादिता का प्रतीक है। इसी लघुकृति में मुख्तार साहब ने दानी की परिभाषा का अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में ऐसा सोदाहरण विवेचन किया है कि जससे जन सामान्य की आँखें खुल जाती हैं और यह स्पष्ट हो जाता है कि मान-बढ़ाई के कारण दिया गया बड़े से बड़ा दान भी अहिंसा और परोपकार की भावना से दिये गये छोटे से छोटे दान के सामने तुच्छ है। इस लघुवृत्ति के माध्यम से मुख्तार साहब ने अनेकान्त के वास्तविक स्वरूप को समझाने का प्रयास किया है। छोटे बच्चों अथवा जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त से अनभिज्ञ लोगों के लिये यह एक उत्तम पुस्तक है। इसका पुनः प्रकाशन कराकर सर्वसाधारण में वितरण करना उपयोगी रहेगा। इसी क्रम में मुख्तार साहब की एक अन्य कृति है- 'जैन साहित्य और इतिहास' पर लिखे गये बत्तीस लेखों का संकलन है। वस्तुतः ये लेख पं. नाथूराम जी प्रेमी के प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ 'जैन साहित्य और इतिहास' पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं। जैसा कि इस ग्रंथ के नाम से स्पष्ट है। इसमें मुख्तार साहब के 'भगवान महावीर और उनका समय' तथा 'स्वामी समन्तभद्र' जैसे उन शोधपूर्ण आलेखों का भी संकलन है, जो पृथक्-पृथक् स्वतंत्र ट्रेक्ट के रूप में भी प्रकाशित है। उपर्युक्त के अतिरिक्त पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने दिगम्बर जैन साहित्य के प्राकृत पद्यों/ गाथाओं का संयोजन/ संकल्प और संपादन करके 'पुरातन जैन वाक्यसूची' के नाम से जो संग्रह प्रकाशित किया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें विद्वानों/शोधार्थियों को दिगम्बर जैन साहित्य के प्राकृत पद्यों को खोजने में मदद मिलेगी। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पं. मुख्तार साहब ने इस ग्रंथ के प्रारंभ में 170 पृष्ठीय एक विस्तृत प्रस्तावना लिखी है, जिसमें उन्होंने 64 ग्रंथों और उनके लेखकों पर विस्तार से विचार किया है और कुछ अनुछुए पहलुओं को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। इसमें अनेक विवादित प्रश्नों का सर्वमान्य समाधान आगम और आगमोत्तर साहित्य के आलोक में प्रस्तुत किया है। यह शोधपूर्ण लेखन इतना प्रामाणिक एवं तर्कपूर्ण है कि आज भी वह शोधार्थियों के लिये प्रकाशस्तंभ का कार्य करता है। तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ (पृष्ठ 27 से 58 तक), गोम्मटसार और नेमिचन्द्र (पृष्ठ 68 से 91 तक) एवं सन्मतिसूत्र और सिद्धक्षेत्र (पृष्ठ 119 से 168 तक) नामक शीर्षकों के अन्तर्गत उन्होंने लगभग एक सौ पृष्ठों में उन उन आचार्यों और उनके ग्रंथों से संबन्धित प्रचुर सामग्री प्रस्तुत की है, जिससे अनेक भ्रांतियों का निराकरण हुआ है। जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भाग 1 में संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में निबद्ध 171 अप्रकाशित ग्रंथों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित संकलन किया गया है। तत्-तद् ग्रंथों की संक्षिप्त जानकारी हेतु इन प्रशस्तियों का विशेष महत्त्व है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy