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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 आचार्य समन्तभद्रकृत स्तुतिविद्या का हिन्दी अनवाद यद्यपि पं. पन्नालाल साहित्याचार्य ने किया है, किन्तु इसकी विस्तृत प्रस्तावना में उन्होंने ग्रंथ के नाम आदि से लेकर ग्रंथ और ग्रंथकार पर तो विचार किया ही है, साथ ही उनके टीकाकार आदि पर भी विचार किया है। ग्रंथगत विषयवस्तु का विवेचन और उनकी युक्तियों का अन्य शास्त्रों के आधार पर तार्किक दृष्टि से पुष्ट करना पं. मुख्तार साहब जैसे जिनवाणी के गहन अध्येता द्वारा ही संभव था। जैन सिद्धांत के अनुसार भगवान् वीतराग है। उनकी स्तुति अथवा निन्दा करने से वे न तो प्रसन्न होते हैं और न ही नाराज। इसी प्रकार वे सृष्टि से कर्ता भी नहीं है, जबकि अन्य अनेक भारतीय दर्शन ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं। इन्हीं अन्य दर्शनों से संगति बैठाने की दृष्टि से एवं वीतरागदेव की स्तुति-पूजा आदि करने के औचित्य को निर्धारित करते हुये पं. जुगलकिशोर मुख्तार जी स्तुतिविद्या की प्रस्तावना (पृष्ठ 17) में लिखते हैं "जब भले प्रकार संपन्न हुये स्तुति-वन्दनादि कार्य इष्टफल को देने वाले हैं तब वीतरागदेव में कर्तृत्व विषय का आरोप सर्वथा असंगत तथा व्यर्थ नहीं है, बल्कि ऊपर के निर्देशानुसार संगत और सुगठित है- वे स्वेच्छा-बुद्धि-प्रयत्नादि की दृष्टि से कर्त्ता न होते हुये भी निमित्तादि की दृष्टि से कर्त्ता जरूर हैं और इसलिये उनके विषय में अकर्त्तापन का सर्वथा एकान्त पक्ष घटित नहीं होता; तब उनसे तद्विषयक अथवा ऐसी प्रार्थनाओं का किया जाना भी असंगत नहीं कहा जा सकता है, जो उनके संपर्क तथा शरण में आने से स्वयं सफल हो जाती है अथवा उपासना एवं भक्ति के द्वारा सहज साध्य होती है।" परीक्षा ग्रन्थ: पं. जुगलकिशोर मुख्तार अपने परमाराध्य समन्तभद्र स्वामी के केवल भक्त ही नहीं थे, अपितु उनके पथानुगामी भी थे। जैसे आचार्य समन्तभद्र ने अपनी आप्तमीमांसा में आप्त किंवा सच्चे देव की परीक्षा की है, ठीक उसी प्रकार मुख्तार साहब ने प्राचीन एवं पूज्य आचार्यों के नाम से अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये लिखे गये प्राचीन ग्रंथों/ जिनवाणी का परीक्षण किया है और एक नवीन क्रान्ति का सूत्रपात किया है। अनेक शताब्दियों से जिन ग्रंथों को पूर्वाचार्यों की कृति माना जा रहा था, उनका सम्यक् परीक्षण करके उन्हें तथाकथित भट्टारकों की कृतियाँ सिद्ध किया है। आप्तमीमांसा एवं आप्तमीमांसा की तर्ज पर ग्रंथ परीक्षा के कारण प्रारंभ में मुख्तार साहब को विद्वानों का कोपभाजन बनना पड़ा, किन्तु बाद में उनके अकाट्य तर्कों को विद्वानों ने स्वीकार किया। फलस्वरूप सच्ची जिनवाणी से जैन विद्वानों का परिचय हुआ। ऐसे विवादित अनेक ग्रंथों का परीक्षण करके मुख्तार साहब ने उन्हें ग्रंथ परीक्षा के नाम से चार भागों में प्रकाशित किया था। प्रथम भाग में आचार्य उमास्वामी के नाम से प्रचलित श्रावकाचार, आचार्य कुन्दकुन्द के श्रावकाचार और आचार्य जिनसेन के त्रिवर्णाचार की परीक्षा करके उन्हें परंपरा-विरुद्ध एवं झूठा सिद्ध किया है। द्वितीय भाग में मुख्तार साहब ने अत्यन्त प्रतिष्ठित एवं पञ्चम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी के नाम से परवर्ती काल में लिखित ग्रंथ भद्रबाहु संहिता का अन्तरंग परीक्षण
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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