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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 (2) जिनशासन सभी का हित क्यों नहीं करते शिष्य प्रश्न करता है कि जिनशासन के भक्त देव मंगल करने वालों की सहायता क्यों नहीं करते और मंगल न करने वालों को दण्ड क्यों नहीं देते ? इस प्रश्न का समाधान दिशाबोधक है जो इस प्रकार है 7 " जीवों को सुख-दुःख होने के प्रबल कारण अपना कर्म का उदय है, उस ही के अनुसार बाह्य निमित्त बनते हैं, इसीलिये जिसके पाप का उदय हो उसको सहाय का निमित्त नहीं बनता और जिसके पुण्य का उदय हो उसको दण्ड का निमित्त नहीं बनता।" (पृष्ठ-9) निमित्त न बनने का कारण " जो देवादिक हैं वे क्षयोपशमज्ञान से सबको युगपत् नहीं जान सकते। इसलिये मंगल करने वाले और नहीं करने वाले का जानपना किसी देवादिक को किसी काल में होता है। इसलिये यदि उसका जानपना न हो तो कैसे सहाय करें अथवा दण्ड दें। और जानपना हो तब स्वयं को जो अतिमंदकषाय हो तो सहाय करने या दण्ड देने के परिणाम ही नहीं होते, तथा तीव्र कषाय हो तो धर्मानुराग नही हो सकता तथा मध्यमकषाय रूप वह कार्य करने के परिणाम हुए और अपनी शक्ति न हो तो क्या करें ? इस कारण सहाय करने या दण्ड देने का निमित्त नहीं बनता । " "यदि अपनी शक्ति हो और अपने को धर्मानुरागरूप मध्यम कषाय का उदय होने से वैसे ही परिणाम हों, तथा उस समय अन्य जीव का धर्म-अधर्मरूप कर्तव्य जाने; तब कोई देवादिक किसी धर्मात्मा की सहायता करते हैं अथवा किसी साधर्मी को सदुपदेश देते हैं। इस प्रकार कार्य होने का कुछ नियम तो है नहीं। " अंत में पण्डितजी ने कहा कि दुःख-सुख सहायता - असहायता आदि की इच्छाएँ कषायमय हैं, दुखदायक हैं; अतः सर्व इच्छा त्याग का एक वीतराग विशेष ज्ञान होने की अर्थी होकर जो अरहंतादिक को नमस्कारदादिरूप मंगल किया है। इस प्रकार यहाँ लौकिक देवों की भक्ति आदि को मिथ्यात्वमूलक अनिश्चित फल या दण्डदायी मानकर निषेध किया है (मोक्षमार्गप्रकाशक: अध्याय-1 पू. 9)। ( 3 ) देवगति के दुःख अध्याय तीन में चारों गतियों के दुःख के साथ देवगति के दुःख का वर्णन है। इसके अनुसार भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्कों के कषाय बहुत मन्द नहीं है और उपयोग चंचल बहुत हैं तथा कुछ शक्ति भी है सो कषायों के कार्यों में प्रवर्तते है कौतूहल, विषयादि कार्यों में लग रहे हैं और उस आकुलता से दुःखी ही हैं। वैमानिकों के ऊपर-ऊपर विशेष मन्दकषाय है और शक्ति विशेष है। वेदनीय में साता का उदय बहुत है । वहाँ भवनत्रिक को थोड़ा है, वैमानिकों के ऊपर-ऊपर विशेष है। जघन्य आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट इकतीस सागर है। संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख है । (अध्याय - 3, पृष्ठ-68-69)
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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