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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 पं. टोडरमलजी की दृष्टि में क्षेत्रपाल पद्मावती _ -डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल पं. श्री टोडरमलजी के मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ-10 में उल्लिखित “जिनशासन के भक्त देवादिक हैं ते सिद्धभक्त पुरुष के अनेक इन्द्रिय सुख को कारण भूत सामग्रीनिका संयोग करावे है; दुख को कारणभूत सामग्री को दूरि करि है," का संदर्भ दिया; अतः उत्सुकता के समाधान हेतु 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में जहाँ-जहाँ देवादिक का वर्णन आया है, उसका विवरण पाठकों के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत है(1) अरहतादिक से प्रयोजन की सिद्धि मोक्षमार्गप्रकाशक के पृष्ठ 6-7 में श्री पं. टोडरमलजी ने अरहतादिक के स्तवन आदि से प्रयोजन की सिद्धि का उल्लेख कर लिखा है कि- इसमें अरहतादिक की भक्ति स्तवनादि से परिणाम विशुद्ध होते हैं। पुनश्च समस्त कषाय मिटाने का साधन है, इसलिये शुद्ध परिणाम का कारण है; सो ऐसे परिणामों से अपने घातिकर्म की हीनता होने से सहज ही वीतराग-विशेष ज्ञान प्रगट होता है। जितने अंशों में वह हीन हो उतने अंशों में यह प्रगट होता है। इन्द्रियजनित सुख और दुख का विनाश भी अरहंतादिक की मनोकामना रहित भक्ति के विशुद्ध परिणामों से होता है। यह कार्य अघातिया कर्मों को साताकर्म प्रकृतियों के बंध , असाता आदि पाप प्रकृतियों के संक्रमण, उत्कर्षण-अपकर्षण से होता है। इससे अर्थात् अरहंतादिक की भक्ति से जिनशासन के भक्त देवादिक इन्द्रिय सुख की सामग्रियों का संयोग कराते हैं और दुःख की कारणभूत सामग्रियों को दूर करते हैं। इस कथन के साथ पं. टोडरमलजी का निम्न कथन महत्त्वपूर्ण है- 'परन्तु इस प्रयोजन से कुछ भी अपना हित नहीं होता; क्योंकि यह आत्मा कषाय भावों से बाह्य सामग्रियों में इष्ट-अनिष्टपना मानकर स्वयं ही सुख-दु:ख की कल्पना करता है। कषाय के बिना बाह्य सामग्री कुछ सुख-दुख की दाता नहीं है तथा कषाय है सो सर्व आकुलतामय है, इसलिये इन्द्रियजनित सुख की इच्छा करना और दुख से डरना यह भ्रम है। "पुनश्च इस प्रयोजन हेतु अरहंतादिक की भक्ति करने से भी तीव्र कषाय होने के कारण पापबंध ही होता है, इसलिये (लौकिक कामना हेतु) अपने को इस प्रयोजन का अर्थी होना योग्य नहीं है। अरहंतादि की भक्ति के करने से ऐसे प्रयोजन तो स्वतः सिद्ध होते हैं। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृ.6-7) पं. टोडरमलजी ने शासन देवताओं की भक्ति को मिथ्यात्व प्रेरक कषायजन्य मानकर उसका निषेध किया है। अरहंतादिक की मनोकामनापूर्ण भक्ति भी तीव्रकषाय का परिणाम होने से पापरूप है। अत: दोनों स्थितियाँ आत्महितकारक नहीं है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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