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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 (4) कुदेवों का प्रतिषेध अध्याय छह में कुदेव; कुगुरू और कुधर्म का प्रतिषेध किया है। अध्याय 6 के पृष्ठ 169-173 में वर्णित विषय का सार इस प्रकार है कि बहुत से जीव इस पर्याय संबन्धी शत्रुनाशादिक व रोग मिटाने, धन-पुत्रादिक की प्राप्ति, आदि अनेक प्रयोजनों सहित कुदेवादिक का सेवन करते हैं; हनुमानादिक को पूजते हैं, देवियों को पूजते हैं, भूतप्रेत, पितर, व्यन्तरादिक को पूजते हैं; सूर्य -चन्द्रमा, शनिश्चरादि ज्योतिषियों को पूजते है। सो इस प्रकार कुदेवादिक का सेवन मिथ्यादृष्टियों से होता है; क्योंकि प्रथम तो उनमें कितने ही कल्पनामात्र देव हैं तथा व्यन्तरादिक किसी का भला-बुरा करने को समर्थ नहीं है। समर्थता में कर्त्तापना होता है। किसी का भला बुरा नहीं होता दिखलाई देता है। सब कुछ पाप और पुण्य के उदय से होता है। व्यंतरादिक कुछ करने में समर्थ नहीं है, उनके मानने-पूजने से अलग रोग लगता है, कुछ कार्य की सिद्धि नहीं होती। कभी कोई व्यंतरलोक में उनको सेवन करने की प्रवृत्ति से चमत्कार दिखाते हैं। उससे भोला जगत भ्रमित हो जाता है। जिन प्रतिमाओं के अतिशय जिनकृत न होकर जैनी व्यंतरदेव कृत होते व्यंतरों में प्रभुत्व की हीनता अधिकता तो है किन्तु कुतूहल से कुस्थान में निवासादिक बताकर हीनता दिखाते हैं। व्यन्तर बालक की भांति कुतूहल करते रहते हैं। मंत्रादिक की अचिन्त्य शक्ति है। किसी सच्चे मंत्र के निमित्त-नैमित्तिक संबन्ध से किंचित् गमनादि नहीं हो सकते व किंचित् दुख उत्पन्न होता है...... इसमें जलाना नहीं होता। क्योंकि वैक्रियिक शरीर का जलाना संभव नहीं होता। व्यंतरों के अवधिज्ञान किसी को अल्प क्षेत्रकाल जानने का है, किसी को बहुत है। उसी अनुसार जवाब देते हैं। वे अपने शरीर व अन्य पुद्गल स्कन्धों को जितनी शक्ति हो उतने ही परिणमित कर सकते हैं, अन्य जीव में शरीर का पुण्यपापानुसार परिणमित कर सकते हैं। व्यंतरों को पूजने से पुण्यबन्ध नहीं होता, रागादिक की वृद्धि होने से पाप ही होता है। इसीलिये उनका मानना पूजना कार्यकारी नहीं है। सूर्य-चन्द्र ग्रहादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और प्राणी के यथासंभव योग को प्राप्त होने पर सुख-दुख होने के आगामी ज्ञान के कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देने को समर्थ नहीं है। इनके पूजने से इष्ट नहीं होता और कोई नहीं पूजता उसका भी इष्ट होता है; इसीलिये उनका पूजनादि करना मिथ्याभाव है। (5) क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि की पूजन का निषेध क्षेत्रपाल, पद्मावती, यक्ष-यक्षिणी आदि जो जिनमत का अनुसरण करते हैं उनका पूजना योग्य नहीं है। जिनमत में संयम धारण करने से पूज्यपना होता है और देवों के संयम होता ही नहीं। तथा इनको सम्यक्त्वी मानकर पूजते हैं सो भवनत्रिक में सम्यक्त्व की भी मुख्यता नहीं है। यदि सम्यक्त्व से ही पूजते हैं तो सर्वार्थसिद्धि से देव, लोकान्तिक देव उन्हें ही
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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