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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 क्रिया भी आस्रव का कारण बन सकती है। यहाँ एक ही क्रिया से आस्रव और निर्जरा दोनों हो सकते हैं, ऐसा कहकर अनेकान्त दृष्टि का ही परिचय दिया है सूत्रकृतांगसूत्र में श्रमणों को किस प्रकार की भाषा को उपयोग में लानी चाहिए ? इस संदर्भ में भगवान महावीर ने कहा कि श्रमणों को विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद का अर्थ है- किसी भी प्रश्न का समाधान भिन्न-भिन्न दृष्टियों से भिन्न-भिन्न रूप से देना । भगवान महावीर ने अपने समय में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि के परस्पर विरोधी विचारधाराओं का समन्वय अनेकान्तवाद के आधार पर ही किया। भगवतीसूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रश्नोत्तर संकलित हैं। 63 तथागत बुद्ध ने लोक की शाश्वतता अशाश्वतता, जीव की नित्यानित्यता, जीव और शरीर के भिन्नाभिन्नता आदि तत्व संबन्धी सभी प्रश्नों को अव्याकृत और अनुपयोगी बताकर उन प्रश्नों के उत्तर देने की अपेक्षा मौन धारण किया । किन्तु इसका तात्पर्य यही है कि बुद्ध ने भी वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप को स्वीकारा है जब विरोधी धर्मयुगल जैसे- नित्यानित्यता, सान्तता अनन्तता इत्यादि वस्तु में सापेक्ष रूप से विद्यमान हैं तो एकान्तवाद से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन संभव नहीं हो सकता है। एकान्तवाद से किया गया वस्तु का प्रतिपादन असत्य हो जायेगा । ऐसा सोचकर ही तथागत बुद्ध ने इन प्रश्नों के उत्तर में मौन धारण करना अधिक उचित समझा। यदि उत्तर देना भी पड़ा तो निषेधात्मक रूप से उत्तर दिया। 44 परन्तु भगवान महावीर की शैली इनसे भिन्न थी। उन्होंने प्रत्येक प्रश्न को व्याकृत बताकर उसका उत्तर देने के लिए प्रयास किया । महावीर ने अनेकान्तिक वस्तु का एक पक्षीय प्रतिपादन नहीं किया, अपितु समस्त परस्पर विरोधी धर्मयुगलों को स्वीकार करके समन्वयात्मक रूप से वस्तु का प्रतिपादन किया। भगवान महावीर का कहना था कि जब वस्तु के स्वरूप में ही नित्यता, अनित्यता, एकता अनेकता, भेद अभेद आदि अनेक परस्पर विरोधी पक्ष विद्यमान हैं, तो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादन के लिए अनेकान्त दृष्टि उपयुक्त हो सकती है। इसी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर उन सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। जिनको बुद्ध ने अव्याकृत और अनुपयोगी बताकर टाल दिया था। जैसे- जमाली ने जब यह प्रश्न किया- " भगवान! लोक शाश्वत है या अशाश्वत ?" भगवान ने कहा- “लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है" क्योंकि लोक कभी नहीं था, नहीं है, और नहीं रहेगा, ऐसा नहीं है। इसलिए लोक ध्रुव और शाश्वत है। लोक अशाश्वत भी है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में लोक का विकास और ह्रास होता रहता है। इस दृष्टि से लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों है। 25 जीव के शाश्वत या अशाश्वत के विषय में भगवती सूत्र में कहा गया है कि जीव शाश्वत है क्योंकि जीव कभी नहीं था, जीव कभी नहीं है, और कभी नहीं रहेगा ऐसा संभव नहीं है। इसलिए जीव शाश्वत है। जीव अशाश्वत भी है, क्योंकि जीव नैरयिक से तियंच, तिथंच से मनुष्य और मनुष्य से देव हो जाता है।" इस प्रकार जीव या आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य है। 27
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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