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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 वह समस्त जगत् के भीतर भी है और बाहर भी है। उपनिषद्कारों ने परम तत्त्व की व्याख्या में न केवल एकान्त का निषेध किया, परन्तु विरोधी धर्म को स्वीकार भी किया है, गीता में परमतत्त्व को चराचर भूतों के बाहर और भीतर दोनों माना गया है। इससे उपनिषदों और गीता में अनेकान्त की शैली स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उपरोक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट परिलक्षित होती है कि समन्वयवादी व्यावहारिक जीवन दृष्टि के बीज बुद्ध और महावीर से पूर्व भी थे, जो कालान्तर में अनेकान्तवाद का आधार बन गये हों। बौद्ध साहित्य में अनेकान्त दृष्टि संयुक्तनिकाय में कहा गया है कि 'जीव' और शरीर एक है' या 'यह दोनों अलग-अलग हैं' ऐसा कहना मिथ्यादृष्टि है। इसलिए इन दोनों को छोड़कर बुद्ध मध्यमार्ग से उपदेश करते हैं, "क्योंकि ये दोनों विचार एकान्त रूप होने से मात्र सत्यांश हैं, पूर्ण सत्य नहीं है। आत्मा शरीर से न तो एकान्त भिन्न है और न हीं अभिन्न ही है बुद्ध ने तत्कालीन सभी शाश्वतवादी-उच्छेदवादी, आत्मवादी-अनात्मवादी आदि मन्तव्यों को एकांगी होने के कारण त्याज्य माना है। बुद्ध, यही सत्य है, ऐसा नहीं कहते थे। उन्होंने कहा कि 'सब कुछ विद्यमान है' और 'सब कुछ शून्य है' ये दोनों ही अन्त हैं। इसलिए वे मध्यम मार्ग का उपदेश देते थे। बुद्ध सभी प्रश्नों को उत्तर लगभग निषेध रूप से ही देते थे। उनको भय था कि विधेय रूप से कहने पर निश्चित ही किसी मतवाद में उलझ जायेंगे। ऐकान्तिक मान्यताओं से बचने के लिए तत्वमीमांसा संबन्धी प्रश्नों के उत्तर में या तो मौन रहते या उन्हें अव्याकृत कहकर टाल देते थे। जैसे उनसे पूछा गया कि - मरणोत्तर तथागत की सत्ता रहती है या नहीं? बुद्ध ने कहा जैसे गंगा की बालू और समुद्र की गहराई को नहीं नापा जा सकता है। उसी प्रकार मरणोत्तर तथागत भी अप्रमेय और गंभीर है। इसलिए अव्याकृत है। बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित एकान्त उच्छेदवादी और शाश्वतवादियों के मन्तव्यों का निषेधकर अशाश्वतानुच्छेदवाद का समर्थन किया। इससे यही परिलक्षित होता है कि बुद्ध ने सदैव ही ऐकान्तिक मान्यताओं से दूर रहने के लिए प्रयत्न किया और इसके लिए विभज्यवाद का सहारा लिया। शुभ माणवक के यह पूछने पर कि- ब्राह्मण गृहस्थ को ही आराधक मानते हैं तो इस विषय में आपका क्या मत है? बुद्ध ने कहा- मैं यहाँ एकांतवादी नहीं, विभज्यवादी हूँ। मिथ्यात्व से ग्रसित गृहस्थ भी निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं हो सकता और उसी प्रकार मिथ्यात्वी त्यागी भी आराधक नहीं हो सकता है।" जैनागम में अनेकान्त दृष्टि जैन परंपरा का प्राचीन ग्रंथ आचारांग है। इस आगम में भी अनेकान्त दृष्टि के संकेत मिलते हैं। उदाहरणार्थ- "जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा 12 ऐसा कहा गया है। इस पंक्ति का अर्थ है कि जिन कारणों से आश्रव हो जाता है, उन्हीं कारणों से निर्जरा भी हो जाती है और जिन कारणों से निर्जरा होती है, उन्हीं कारणों से आश्रव भी हो जाता है। आश्रव और निर्जरा भावों पर निर्भर रहते हैं। भाव निर्जरा के हैं तो आस्रव की
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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