SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 61 हिमालय का पूर्ण स्वरूप चारों दिशाओं का सम्मिलित रूप है। यह स्वरूप अनेकान्त दृष्टि से ही देखा जा सकता है। इस प्रकार पूर्ण सत्यता और यथार्थता का द्वारोद्घाटन अनेकान्तवाद ही कर सकता है। अनेकान्तवाद का मुख्य उद्देश्य यथार्थता को भिन्न-भिन्न पहलुओं से देखना, समझना एवं समझाने का प्रयास करना है। अतः यह एक ऐसी व्यावहारिक पद्धति है जो सत्य की विभिन्न दृष्टियों से खोज करती है। अनेकान्त शब्द 'अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों से बना है जिसका अर्थ हैअनेके अन्ताः धर्माः यस्यासौ अनेकान्तः। जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहा जाता है। धवला में अनेकान्त का अर्थ 'जायत्यन्तर' बतलाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि अनेक धर्मों को मिलाने पर ज्ञप्त होता है, वह अनेकान्त है। दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि वस्तु में जो अनेक सामान्य और विशेष गुण और पर्यायें हैं, उनको स्वीकार करना अनेकान्त है। सुरेश मुनि के अनुसार पदार्थ में अनेक परस्पर विरोधी विशेषताएँ होने के कारण पदार्थ अनेकान्त रूप है। जो पदार्थ की इस अनेकरूपता को प्रतिपादन करता है, वही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद का विकास अनेकान्तवाद या स्याद्वाद शब्द को सुनकर बड़े-बड़े विद्वान भी यही समझते हैं कि अनेकान्तवाद जैनों का वाद है। इसका मुख्य कारण यह है कि जैन विद्वानों ने इस पर न केवल अनेक ग्रंथों की रचना करके अनेकान्तवाद की पुष्टि की, अपितु संपूर्ण शक्ति से अनेकान्तवाद का समर्थन किया और अनेकान्तवादरूपी शस्त्र को धारण करके ही अन्य दार्शनिकों का सामना किया है। पं. सुखलालजी कहते हैं कि अनेकान्त दृष्टि का मूल भगवान महावीर से भी पुराना है। यह ठीक है कि महावीर के पूर्ववर्ती जैन और जैनेतर ग्रंथों में अनेकान्त का व्यवस्थित और विकसित रूप नहीं मिलता है, परन्तु महावीर के पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य और समकालीन बौद्ध साहित्य में अनेकान्त दृष्टि के पोषक विचार मिल ही जाते हैं।" इसी बात का समर्थन करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने भी लिखा है कि अनेकान्तदृष्टि केवल जैन दार्शनिकों की एकमात्र बपौती नहीं है। अनेकान्त दृष्टि के संकेत वैदिक और औपनिषदिक साहित्य में भी उपलब्ध होते हैं। ऐसा कहकर उन्होंने वेद और उपनिषदों के अनेक उद्धरण भी दिये हैं।।2 वेद और उपनिषदों में अनेकान्तदृष्टि के संकेत वेदों और उपनिषदों में तत्कालीन विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं में समन्वय के प्रयास दृष्टिगोचर होते हैं। प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में कहा गया है कि सत् एक ही है किन्तु मनीषीगण उसको अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार भगवद्गीता'4 में कहा गया है कि अनादिमान ब्रह्म न सत् है और न असत् है। ईशावास्योपनिषद में सर्वत्र अनेकान्त जीवन दृष्टि के संकेत मिलते हैं। इसमें भी परमेश्वर को सत् और असत् दोनों कहा गया है। परम तत्त्व चलता भी है, नहीं भी चलता है, वह दूर और समीप दोनों है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy