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________________ 64 अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 जीव और शरीर परस्पर भिन्न हैं, या अभिन्न ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि काया आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है। शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है, काया सचित्त भी है और अचित्त भी है, काया जीव रूप भी है और अजीव रूप भी है। इस प्रकार जैनदर्शन में शरीर और आत्मा को भिन्नाभिन्न रूप में माना गया है। शरीर आत्मा से भिन्न इसलिए है कि वह अपने प्रयासों से शरीर से मुक्त हो जाती है। आत्मा शरीर से अभिन्न इसलिए है कि इन्द्रिय, कषाय, योग, उपयोग आदि परिणाम शरीरयुक्त जीव के ही होते हैं। इस प्रकार जैनागम, भगवतीसूत्र, प्रज्ञापना और अनुयोगद्वारसूत्र आदि में अनेकान्तवाद की प्रथमिकता देखी जाती है, परन्तु अनेकान्तवाद को दार्शनिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य समन्तभद्र आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी को जाता है। आप्तमीमांसा के प्रणेता को जाता है, जिन्होंने स्याद्वाद का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी ने भी अनेकान्त की प्रतिष्ठापना की है। आप्तमीमांसा के प्रणेता आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। आप्तमीमांसा पर आचार्य अकलंक और विद्यानंदी ने विवरण लिखकर उसे सरल बनाने का प्रयत्न किया है। प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'अनेकान्तजयपताका' आदि अनेक ग्रंथों की रचना करके अनेकान्तवाद के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोगावच्छेदक द्वात्रिंशिका आदि ग्रंथों में एवं उपाध्याय यशोविजयजी ने 'अनेकान्तव्यवस्था' प्रभृति ग्रंथों में अनेकान्तवाद की पुष्टि के लिए श्लाघनीय प्रयास किये हैं। वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्म है। वस्तु के अनन्तधर्म, अनन्तगुण और अनन्त पर्यायें होती हैं। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के कुछ गुण धर्म ही हमारे अनुभूति में आते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वस्तु में उतने ही गुण धर्म है, जितने हमारे अनुभूति के विषय बनते हैं। परन्तु वस्तु में ऐसे अनेक गुण धर्म है, जो हमारी सामान्य अनुभूति के परे हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं,- वस्तु में अनन्त पर्यायें हैं। कुछ व्यक्त पर्यायें हैं तो बहुत कुछ अव्यक्त पर्यायें हैं। व्यक्त या स्थूल पर्यायों का जगत बहुत संकीर्ण है, जबकि सूक्ष्म या अव्यक्त पर्यायों का जगत् बहुत अधिक विस्तृत है। व्यक्ति अव्यक्त पर्यायों के जगत में प्रवेश किए बिना ही अर्थात केवल व्यक्त पर्यायों के आधार पर ही वस्तु स्वरूप का निर्णय कर लेता है, तो उसका वह निर्णय एकांगी और अपूर्ण होता है। कच्चे आम्रफल में व्यक्त रूप से खट्टा स्वाद (रस) होता है। परन्तु अव्यक्त रूप से उसमें अम्ल, मध र, कषैला आदि सभी रस विद्यमान होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर उसके पकने पर भी मधुरता आदि गुणों की कोई संभावना नहीं रहती। हमारे भीतर राग, द्वेष आदि व्यक्त पर्यायायें हैं तो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख आदि की अव्यक्त पर्यायें भी हैं। अन्यथा ध्यान साधना आदि उपक्रम को कोई अर्थ नहीं रहता। इस प्रकार वस्तु में व्यक्ताव्यक्त रूप से अनन्तधर्म है। जैसे- कच्चा आम्रफल वर्ण की दृष्टि से हरा या एकाधिक वर्णों से युक्त है, गन्ध की दृष्टि से भीतर से कोमल है तो बाहर से कठोर है, आदि। पुनः वस्तु में
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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