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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 हिंसा/अहिंसा के दायरे को 'पुरुषार्थ देशना' में बहुत खुलासा करके समझाया गया है। आचार्य विशुद्धसागर भाव हिंसा व द्रव्य हिंसा का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि मुमुक्षु उभय हिंसा का त्यागी होता है। श्रावकों को सचेत करते हुए कहते हैं कि आप लोग निष्प्रयोजन भाव हिंसा करते रहते हैं। किसी सीरियल में किसी का घात हो गया और अनुमोदना करते हुए आपने ताली बजा दी या शत्रु देश के हताहत सैनिकों के लिए खुशी जाहिर की तो आपने अकारण ही भाव हिंसा कर ली। इसी प्रकार कषाय रूप परिणामों से भले ही परघात नहीं किया परन्तु अपने स्वभाव का घात करने से आप हिंसक है। स्वयंभूरमण समुद्र का महामच्छ जब छह माह सोता है तो उसके 250 योजन के खुले मुख में अनेक जीव आते जाते रहते हैं। उसके कान में बैठा एक तन्दुलमच्छ सोचता है यदि मुझे ऐसी शरीर की अवगाहना मिली होती तो एक को भी नहीं छोड़ता। तन्दुलमच्छ अपने कलुषित भावों के कारण हिंसा का इतना बंध कर लेता है कि मरकर सातवें नरक जाता है। जीव की परिणति देखिए- बिना सताये अपने प्रमाद भावों के कारण कितनी हिंसा कर लेता है कि वर्तमान में संयम धारण करने के परिणाम नहीं हो पा रहे हैं। कषाय से युक्त जीव अपनी आत्मा का पहले घात करता है क्योंकि अंगार को हाथों से फेकने वाले के हाथ पहिले जलते हैं भले ही दूसरा जले या न जले। अहिंसा का पालन करने वाला वस्तुत: दूसरे की नहीं, बल्कि स्वयं की रक्षा कर रहा है। जो स्वयं की रक्षा के भाव में जीता है, वह पर की रक्षा तो कर ही रहा है। आप संभल संभल के चलेंगे तो जीवों की रक्षा स्वयमेव हो जायेगी। आचार्य कहते हैं तू दूसरे के उपकार का कर्ता बनकर अहंकार मत करना। अपने उपकार की बात बताकर यदि उसके मन को दु:खी किया तो वह हिंसा है। उपकार करना है तो बिना बताये, जैसा अमरचन्द्र दीवान ने एक गरीब वृद्धा माँ की, की थी। जिसके घर में खाने का अनाज भी नहीं था। - बीना (म.प्र.)
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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