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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
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लिया तो स्वर्ग के सौधर्म इन्द्र का मुकुट हिलने लगा और नरक के नारकी क्षणभर के लिए शांति का अनुभव करने लगे। यह पुण्य वर्गणा ने प्रभाव दिखाया, भले ही स्वर्ग या नरक में कोई मोबाइल नहीं रखा था। पुद्गल वर्णणाएं अपना काम कर रही हैं। इस प्रकार जैसे आत्मा के परिणाम कर्मवर्गणाओं को कर्म रूप परिणमित होने में निमित्त बने वैसे ही रागद्वेष रूप परिणमन कराने में कर्म निमित्त मात्र हैं। ऐसा निमित्त नहीं मानोगे तो सिद्धों को भी सिद्धालय से वापिस आना पड़ेगा।
(3) 'पुरुषार्थ देशना' श्रावकों के अष्टमूलगुण और रत्नत्रय धर्म पालन करने का एक संपूर्ण आचरण-भाष्य ग्रंथ है। वस्तुतः उपदेश तो महाव्रत धारण करने का दिया जाता है अतः सकल चारित्र का अध्याय भी इसमें समाहित है परन्तु जीव के कल्याण हेतु क्रमिक देशना का व्याख्यान करना और छिपे अध्यात्म रहस्यों को अनावृत करना इसका अभीष्ट लक्ष्य है। यह एक नैतिक कहावत है कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। योगी का उपदेश केवल वचनात्मक नहीं होता वह अपने साधुत्व स्वभाव से बड़े से बड़े व्यसनी को सुमार्ग पर लगा देते हैं। आचार्य शांतिसागर धन्य हैं जिन्होंने एक महाउपद्रवी व्यसनी को योगी बना लिया। घटना एक नगर प्रवेश के समय की थी वही व्यसनी आचार्य श्री के सम्मुख आ खड़ा हुआ। लोग किंचित् चिंतित हो गये कि अब यह क्या करने वाला है? आचार्य श्री ने देखा और अपना कमण्डलु पकड़ा दिया इतना ही नहीं प्रवचन सभा में उसे अपने बगल में बिठा लिया। हृदय-परिवर्तन के लिए आचार्य श्री की यह अचूक दृष्टि- कि वह नवयुवक सप्त व्यसनी, सभा के बीच खड़ा हो गया और जीवनपर्यन्त के लिए अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के लिए प्रार्थना करने लगा। आचार्य श्री ने आशीर्वाद दे दिया। संत हृदय असंत में भी संत खोज लेते हैं। वही आगे चलकर आचार्य संघ में मुनि पायसागर
और बाद में आचार्य पायसागर बन गये। उपद्रवी में भी भगवान बैठा है। क्या मरीचि का जीव कम उपद्रवी था जिसने 363 मिथ्या मत चलाये बाद में वही भगवान महावीर बने। आवश्यकता है-अन्वेषण दृष्टि की।
(4) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय का केन्द्र विषय वस्तु सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत पंचव्रतों में अहिंसा व्रत का वर्णन प्रमुख है। आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा/अहिंसा की व्याख्या लगभग 40 पद्यों में (श्लोक 43 से 86) करते हुए झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह में भी हिंसा पाप होना बताया। आचार्य विशुद्धसागर ने विविध उदाहरणों और कथानकों से हिंसा की व्यापकता को उललिखित किया। आचार्य अमृतचन्द्र ने रागादि भावों के सद्भाव में भले ही द्रव्य हिंसा न हो रही हो परन्तु भाव हिंसा का सद्भाव बताया है तथा कई अपेक्षाओं से हिंसा/अहिंसा का विवेचन किया है:
(1) एक व्यक्ति हिंसा का पाप करता है और अनेक व्यक्ति उसका फल
भोगते हैं। (2) अनेक व्यक्ति हिंसा करते हैं परन्तु एक व्यक्ति फल भोगता है। (3) हिंसा करने पर भी (अप्रमाद अवस्था में) अहिंसक बना रहता है। (4) प्राणघात न करने पर भी हिंसक हो जाता है।