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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 षट्खण्डागम में मंगलाचरण की महत्ता -पं. विमलकुमार जैन सोरया षटखण्डागम एवं कषाय प्राभृत ऐसे ग्रंथ हैं जिनका संबन्ध द्वादशांग वाणी से माना जाता है क्योंकि द्वादशांग श्रुत का इस ग्रंथ में विस्तार से परिचय कराया गया है। कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत वीरसेन स्वामी ने धवला ग्रंथ में कहा है कि 'त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों के विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवल ज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्य रूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूंकि विरोध से रहित है अत: यह ग्रंथ प्रमाण है।" (ध.भाग 9 पृष्ठ 133) दृष्टिवाद बारहवां अंग प्रस्तुत सिद्धान्त ग्रंथों का उद्गम स्थान है। दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका यह 5 प्रभेद हैं। षट्खण्डागम के ज्ञाता श्री धरसेनाचार्य थे जो गिरनार की चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे। वह आचारांग के पूर्ण ज्ञाता थे तथा अंगों और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे। नन्दि संघ की प्राकृत पट्टावलि में अर्हद्बलि, माघनंदि और धरसेन तथा उनके पश्चात् पुष्पदंत-भूतबली को एक दूसरे का उत्तराधिकारी बताया है। इससे सिद्ध होता है कि धरसेनाचार्य के दादा गुरु अर्हबलि एवं गुरु माघनंदी थे। इस पट्टावली के आरंभ में भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्त की वंदना की गई है। गौतम स्वामी से लोहाचार्य तक के समय का उल्लेख मिलता है जिससे स्पष्ट है कि महावीर स्वामी के निर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् अंतिम श्री धरसेन पुष्पदंत भूतबली आचार्य हुए। श्री धरसेनाचार्य ने दक्षिण भारत में श्री महासेनाचार्य के संघ में विहार कर रहे पुष्पदंत-भूतबली जैसे प्रज्ञावंत ऋषियों को पत्र भेजकर अपने पास बुलाया था और सत्कर्म पाहुड़ के सूत्रों का बोध दिया था। इसी की प्रसिद्धि षट्खण्डागम के रूप में हुई। धरसेनाचार्य के द्वारा आषाढ़ शुक्ला एकादशी को अध्ययन पूरा हुआ और उसी दिन दोनों शिष्यों को अपने पास से विदा कर दिया। क्योंकि धरसेन स्वामी को ज्ञात हुआ था कि उनकी मृत्यु निकट है। वह श्रुत ज्ञान की रक्षा संबन्धी अपना कर्त्तव्य पूरा कर चुके हैं। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को दोनों मंगलकारी आचार्यों ने सूत्र रूप में षट्खण्डागम शास्त्र निबद्ध कर चतुर्विध संघ के साथ श्रुतज्ञान की पूजा की थी। षट्खण्डागम ग्रंथ के 3 खण्डों की 12000 श्लोकों में परिकर्म नाम की टीका श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने लिखी और धवलाकार ने इस परिकर्म नाम की टीका का अनेक बार उल्लेख किया है। इसके अलावा आचार्य श्री शामकुंड की 'पद्धति' टीका, आचार्य श्री तुम्बुकूर की चूडामणि टीका, आचार्य श्री समन्तभद्र तथा वप्पदेव कृत व्याख्या प्रज्ञप्ति टीका का उल्लेख मिलता है। आचार्यों ने
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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