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________________ 60 अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 का कहना है कि शिकार खेलने में अनेक प्राणियों की हिंसा करने के परिणाम होते हैं, भले ही शिकार की प्राप्ति हो या न हो। अतः शिकार खेलने में साधनरूप सभी कार्यों का त्याग कर देना चाहिए।65 ६. चोरी- वेदों में चोरी की पर्याप्त निंदा की गई है। तैत्तिरीय संहिता' में तीन प्रकार के चोरों का वर्णन है स्तेन- गुप्त रूप से चोरी करने वाले। तस्कर- प्रकट रूप से चोरी करने वाले। मलिम्लु- अत्यन्त प्रकट रूप से डाका डालने वाले। यजुर्वेद में भी इनका वर्णन हुआ है। चोरी को बुरे आचार में गिनकर इसकी निंदा की गई है। जैनाचार में चोरी को दुर्व्यसन माना गया है तथा इसकी जमकर निंदा की गई है। अस्तेय के प्रसंग में चोरी का वर्णन किया जा चुका है। ७. परस्त्री- वेद में परस्त्री सेवन तथा दुराचारिणी स्त्रियों की निंदा की गई है। कुरल काव्य में परस्त्री सेवन का निषेध करते हुए कहा गया है कि वरमन्यत्कृतं पापमपराधोऽपि वा वरम्। परं न साध्वी त्वत्पक्षे कांक्षिता प्रतिवेशिनी।।८। अर्थात् तुम भले ही कोई भी अपराध या दूसरा कोई भी पाप कर लो, वह अच्छा हो सकता है, परन्तु तुम्हारे पक्ष में पड़ोसी साध्वी स्त्री की चाह अच्छी नही है। इन सात व्यसनों का वर्णन प्रकारान्तर से वेदों में भी पाया जाता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋषियों ने जिन सात मर्यादाओं का वर्णन किया है, उनमें से एक को भी प्राप्त होने वाला मानव पापी होता है। आचार्य यास्क ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है स्तेयं तल्लपारोहणं ब्रह्महत्या भ्रूणहत्या सुरापानम्। दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवा पातकेऽनृतोद्यमिति॥ चोरी, व्यभिचार, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म का पुनः पुनः सेवन तथा पापकर्म में झूठ बोलना ये सात मर्यादा-बुरी आदते हैं। (ग) दान दान देना मानव का आवश्यक कृत्य माना गया है। वेदों में दान की खूब प्रशंसा की गई है। कतिपय संदर्भ द्रष्टव्य हैं ‘स इद् भोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय। (जो अन्न चाहने वाले कमजोर व्यक्ति को अन्न देता है, वह दानी है।) उदार दाता कभी भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है। दीन-हीन दशा को प्राप्त नहीं होता है तथा हानि एवं पीडा को प्राप्त नहीं होता है। 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः। (त्यागपूर्वक उपभोग करो, लालच मत करो) 'शतहस्तं समाहर, सहस्रहस्तं संकिर'। (तुम सौ हाथों वाले होकर धन प्राप्त करो तथा
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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