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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 २. मांस- यजुर्वेद में विध्यात्मक अहिंसा के साथ निषेधात्मक हिंसा के विवेचन से मांसभक्षण को दुर्व्यसन के रूप में देखने का संकेत मिलता है। 'अश्वं मा हिंसी:५३ 'मा हिंसीरेकशफं पशुं५४ अविं मा हिंसी:५५, 'इदमुर्णायु मा हिंसी:५६ 'धृतं दुहानामदितिं जनाय मा हिंसी:५७ कथनों में अश्व, एकशफ पशु, बकरी, भेड़, गाय को मारने के निषेध त्म्कि उक्त कथन यह स्पष्ट करते हैं कि वेदों में मांसभक्षण को बुरा एवं त्याज्य माना गया जैनाचार के प्रमुख ग्रंथ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है कि प्राणियों के घात के बिना मांस की उत्पत्ति नही हो सकती है, इसलिए मांसभक्षी को अनिवार्य हिंसा होती है। स्वयं मरे हुए भैंस, बैल आदि जीवों की हिंसा वहां पाई जाती है, क्योंकि तदाश्रित अनन्त निगोदिया जीवों की हिंसा वहां पाई जाती है। कच्ची, अग्नि में पकी या पक रही सभी मांसपेशियों में उसी जाति के अनन्त निगोदिया जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए उनको खाने वाला उन करोड़ों जीवों का घात करता है। ३. सुरापान- ऋग्वेद में सुरा पीने वालों की निन्दा करते हुए कहा गया है- हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते।” अर्थात् सुरा का पान करने वाले मदमस्त होकर लड़ते हैं और नंगे होकर बकते हैं। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है कि मदिरा मन को मोहित करती है, मोहितचित्त धर्म को भूल जाता है तथा विस्मृतधर्मी हिंसा का आचरण करता है। मदिरा एकेन्द्रियादि जीवों की योनिभूत है। मद्यपायी हिंसा अवश्य करता है। हिंसा के सभी प्रकार मद्य के निकटवर्ती ही हैं। ४. वेश्यागमन- वेदों में वेश्यागमन एवं परस्त्रीसेवन को पृथक्-पृथक् न गिनकर एक व्यभिचार में ही समावेश किया गया है तथा इस प्रसंग में सेविका के स्वामी से जार कर्म कराने का वर्णन किया गया है। वहां कहा गया है कि व्यभिचारिणी सेविका जार कर्म तो कराती है किन्तु उससे वंश वृद्धि नहीं चाहती है। वसुनन्दिश्रावकाचार में वेश्यागमन करने वाले की निंदा करते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य एक रात भी वेश्यागमन करता है, वह सबकी जूठन खाता है। क्योंकि वह सबके साथ समागम करती है। वेश्या पुरुष का सर्वस्व हर लेती है,उसे अस्थिचर्मशेष करके छोड़ देती है। वह सामने तो प्रेम प्रदर्शित करती है, खुशामदी करती है किन्तु अन्त में धनापहरण का भाव रहता है। वेश्यागामी कामान्ध होकर वेश्याकृत अपमानों को सहन करता है। वेश्यासेवनजनित पाप से जीव भयानक दुःखों को प्राप्त करता है। इसलिए मन, वचन, काय से प्रेरणा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।62 ५. शिकार- सभी सभ्य समाजों में आचार की प्रशंसा एवं अनाचार की निंदा की जाती है। यद्यपि वेदों में शिकार की प्रशंसा या निंदा के प्रसंग नहीं है किन्तु परवर्ती साहित्य में शिकार की प्रशंसा भी गई है और निंदा भी। अभिज्ञानशाकुन्तल में कालिदास एक ओर सेनापति के मुख से शिकार खेलने के गुण गिनाते हैं तो दूसरी ओर नर्मसचिव विदूषक के मुख से शिकार की निंदा करते हैं। जैनाचार में शिकार को सप्त व्यसनों में परिगणित करके उसकी बहुशः निंदा की गई है। इसे निष्प्रयोजन पाप माना गया है।64 लाटीसंहिताकार
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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