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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 अर्थात् एक रात के ब्रह्मचर्य से रहने वाले पुरुष को जो उत्तम गति मिलती है, वह गति हजारों यज्ञ करने वालों को भी नहीं मिलती है। यह कथन दोनों परंपराओं में ब्रह्मचर्य की महत्ता सिद्ध करने में पर्याप्त है। ५. अपरिग्रह (परिग्रह परिमाण) बनाम सर्वसुख की कामना- जैनाचार के अपरिग्रहवाद में जहां साधु की निर्वाण प्राप्ति का भाव निहित है, वहां श्रावक में सर्वसुख की भावना छिपी हुई है। ऋग्वेद के 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्' (तुम्हारी संगति समान हो, तुम्हारी वाणी के कथन में समानता हो, तुम्हारे मन में विचार समान हों) में सर्वसुख की भावना दृष्टिगोचर होती है। यद्यपि वेदों में संपूर्ण परिग्रह वर्ग की आवश्यकता की पूर्ति के लिए जरूरत से अधिक वस्तुओं के असंग्रह का विधान अवश्य किया गया है। जबकि जैनाचार में परिमाण का विधान करते हुए कहा गया है कि लोभ कषाय को कम करके, संतोष रूपी रसायन से संतुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दृष्ट तृष्णा को घात करता है और अपनी आवश्यकता को जानकर धन्य-धान्य, सुवर्ण क्षेत्र का परिमाण करता है, वह परिग्रह परिमाण अणवत है। (ख) सप्तव्यसनत्याग जो पुरुष को समीचीन मार्ग छोड़कर कुत्सित मार्ग में प्रवृत्ति कराते है।, उन्हें व्यसन कहा जाता है। व्यसन शब्द यहां बुरी आदत का प्रतीक है। श्री पद्मनन्दि आचार्य ने लिखा 'द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपरांगना। महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुधः॥४७ अर्थात् जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन करना, शिकार करना, चोरी करना तथा परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति को इनका त्याग कर देना चाहिए। 1. द्यूत- ऋग्वेद में जुआरी के परिवार का चित्रण करते हुए कहा गया है कि जुआरी के माता-पिता, भाई भी उसके विषय में कहते हैं कि हम इसे नहीं जानते हैं, इसे बांध कर ले जाओ। अक्षसूक्त में जुआरी की विविध दुर्दशाओं का वर्णन करते हुए अन्त में कहा गया है कि जुआ मत खेलो, खेती करो। जैन परंपरा में कहा गया है कि जिस क्रिया में पासे आदि डालकर धन की हार जीत होती है, वह सब जुआ कहलाता है। विविध श्रावकाचारों में जुआ की पर्याप्त निन्दा की गई है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी के अनुसार जुआ सब अनर्थों में प्रमुख है 'सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सद्य मायायाः। दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम्॥५१ अर्थात् सभी व्यसनों में प्रमुख, पवित्रता या संतोष का नाशक, छलकपट का घर तथा चोरी एवं असत्य का स्थान ऐसे जुआ को दूर से ही त्याग देना चाहिए। पण्डितप्रवर आशाध र तो 'क्व स्वं क्षिपति नानर्थे ५२ कहकर जुआ को सभी अनर्थों में डालने वाला कहा
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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