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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 23 से आक्रान्त हो जाता है। मनु महाराज का कथन है कि जैसे जोंक, बछड़ा और भंवरा थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं वैसे ही राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर लेवे।' उन्होंने कर की किसी शाश्वत व्यवस्था का निर्धारण नहीं किया अपितु उनका कथन है कि जिस भी प्रकार से राजा, राजपुरुष व प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त होवें वैसा विचार करके राजा तथा राज्यसभा राज्य में कर - स्थापन करें। मनु महाराज का स्पष्ट वचन है कि वस्तुस्थितियों का विचार करके ही राजा कर संग्रह करे। राजा व्यापारी से कर लेते समय इन बातों पर अवश्य ही विचार करे कि उसकी खरीद और बिक्री, भोजन व मार्ग की दूरी, भरण-पोषण का व्यय और लाभ, वस्तु की प्राप्ति एवं सुरक्षा और जन-कल्याण की स्थिति कैसी है।' राजा को पशुओं और सोने के लाभ में से पचासवां भाग और अन्नों का छठा, आठवां या अधिक से अधिक बारहवाँ भाग ही लेना चाहिए। गोंद, मधु, घी और गंध, औषधि रस तथा फूल, मूल और फल, इनका छठा भाग कर में लेना चाहिए। वृक्षपत्र, शाक, तृण, चमड़ा, मांसनिर्मित वस्तुएं, मिट्टी के बने वर्तन और सब प्रकार के पत्थर से निर्मित पदार्थ, इनका भी छठा भाग ही कर में लेना चाहिए।' कर ग्रहण में अतितृष्णा राजा व प्रजा दोनों के लिए ही पीड़ादायक है । महाभारत में भी अनेकत्र अपीड़ादायक -कर-संग्रह-पद्धति के दर्शन होते हैं। वहां राजा को उपदेश देते हुए कहा गया है कि जैसे भंवरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके रस का ग्रहण करता है उसी प्रकार राजा भी प्रजा को बिना कष्ट पहुंचाए उनसे कर-संग्रह करे | जैसे गोसेवक गाय के बछड़ों का ध्यान रखते हुए थनों को बिना कुचले दुग्धदोहन करता है । उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षा करते हुए, उन्हें बिना कष्ट पहुचाए, उनके ही कल्याण व संवर्धन के लिए राष्ट्ररूपी गौ का दोहन करे। शान्तिपर्व में राजा को कर संग्रह करते हुए जोंक, व्याघ्री व चूहे के सदृश व्यवहार करने का उपदेश है। जैसे जोंक बहुत ही कोमलता से मनुष्य के शरीर का रक्त पीती है ठीक वैसे ही राजा मृदु उपायों से ही राष्ट्र का दोहन करे। जैसे तीखे दांतों वाला चूहा सोए हुए मनुष्य के पैर के मांस को ऐसी मृदुता से काटता है कि उसे पीड़ा का भान ही नहीं होता। उसी प्रकार राजा कोमल उपायों से ही कर संग्रह करे, जिससे प्रजा को पीड़ा न हो।" वहीं पर ही राजा को उपदेश देते हुए कहा है- 'मालाकारोपमो राजन् भव मागरिककोयमः। 12 अर्थात् हे राजा ! कर - संग्रह करते हुए आपकी चेष्टा मालाकार (माली) के सदृश होनी चाहिए, आंगारिक (कोयला बनाने वाले) के सदृश नहीं जिस प्रकार एक माली वृक्षों की सेवा करता हुआ ही उसके पुष्पादि का उपयोग करता है उसी प्रकार प्रजा की सेवा व रक्षा करते हुए ही कर-संग्रह युक्तियुक्त है। दूसरी ओर, एक कोयला बनाने वाला पहले वृक्ष को काटता है फिर उसे सुखाकर व जलाकर कोयला बनाता है, ऐसा आचरण सर्वथा निषिद्ध है। व्यवहारभाष्य के अनुसार कर का निर्धारीकरण मनुस्मृति की ही भांति पैदावार की राशि, फसल की कीमत, बाजार-भाव और खेती की जमीन आदि पर निर्भर करता है। सामान्य रूप से पैदावार के दसवें हिस्से को कानूनी टैक्स स्वीकार किया गया है।" जैनसूत्रों में अठारह प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है-गोकर, महिषकर, उष्ट्रकर, पशुकर,
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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