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रवीन्द्रपुरी, वाराणसी-२२१००५
प्राचीन ग्रन्थों के आलोक में वर्तमान कर-व्यवस्था
डॉ. अरुणिमा रानी
वैदिक अर्थव्यवस्था का मूलमंत्र है- प्रजारंजन, रक्षण और संवर्द्धन। ऋग्वेद में कर-संग्रह के लिए निर्देश है- 'जो राजा सूर्य और मेघ के स्वभाव वाला होकर आठ मास प्रजाओं से कर लेता है और चार मास यथेष्ट पदार्थों को देता है, इस प्रकार सब प्रजाओं का रंजन करता है, वही सब प्रकार से ऐश्वर्यमान् होता है। प्रस्तुत शोध-पत्र का उद्देश्य प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध कष्ट न देने वाली कर-संग्रह-पद्धति का वर्णन कर आधुनिक बोझिल कर-पद्धति की ओर संकेत करना है।
मनु महाराज समाज-व्यवस्थाओं के प्रवर्तक थे। एक राजा के रूप में उन्होंने अन्य व्यवस्थाओं की ही भांति कर-व्यवस्था का भी निर्धारण किया। मनु महाराज की कर-व्यवस्था प्रजाओं के कष्ट-निवारण हेतु थी। कौटिल्य अर्थशास्त्र में इस वचन की पुष्टि में कहा है- 'मात्स्यन्यायाभिभूताः प्रजाः मनुं वैवस्वतं राजानं चक्रिरे। धान्यषड्भागं पण्यदशभागं हिरण्यं चास्य भागधेयं प्रकल्पयामासु। तेन भृताः राजानः योगक्षेमवहाः। तेषां किल्विषं दण्डकरा हरन्ति, योगक्षेमवहाश्च प्रजानाम्।' मात्स्यन्याय अर्थात् जैसे बड़ी मछली छोटी निर्बल मछली को खा जाती है, इसी प्रकार बलवान् लोगों ने निर्बलों का जीना मुश्किल कर दिया। इस अन्याय से पीड़ित हुई प्रजाओं ने अपनी सुरक्षा और कल्याण के लिए मनु महाराज को अपना राजा बनाया और तभी से प्रजाओं ने अपनी कृषि की उपज का छठा भाग, व्यापार की आमदनी का दसवाँ भाग व कुछ सुवर्ण राजा को कर के रूप में देना निश्चित किया। इस कर को पाकर राजाओं ने प्रजाओं की सुरक्षा और कल्याण का सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर स्वीकार किया। इस प्रकार मनु-निर्धारित कर-व्यवस्था प्रजाओं के कष्टों का निवारण करने और उनका कल्याण करने में सहायक सिद्ध है। कौटिल्य के इस वचन से जहाँ कर-व्यवस्था के उद्भव और प्रयोजन पर प्रकाश पड़ता है वहीं यह भी स्पष्ट होता है कि कर-व्यवस्था प्रजा के रंजन, रक्षण व संवर्धन के लिए होती है।
मनु महाराज की कर-व्यवस्था प्रजा के कष्टों का निवारण करने व उनके कल्याण के लिए है। उन्होंने ऐसे राजा की निन्दा की है जो राजा प्रजाओं की बिना रक्षा किए उनसे बलिअन्नादि का छठा भाग, कर, शुल्क व्यापारियों से लिया जाने वाला, प्रतिभाग चुंगी
और दण्डञ्जुर्माना ग्रहण करता है। ऐसा राजा शीघ्र ही नरकत्रविशेष दु:ख को प्राप्त होता है।' वास्तव में वह प्रजा का ध्यान न रखने के कारण उनके असहयोग से किसी-न-किसी कष्ट