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________________ 20 अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 है, किन्तु इसका कारण भी स्पष्ट है कि इस प्रकार की रचना के लिए बुद्धि की अव प्रखरता, विषय की अद्भुत पकड़ तथा जिस भाषा में रचना करनी हो उस पर व्याकरणात्मक दृष्टि से असाधारण नियंत्रण होना चाहिए, तभी इस प्रकार का कोई ग्रंथ मूर्तरूप ग्रहण कर सकता है और यह लिखने में जरा भी संकोच नहीं हो रहा कि इन सभी लक्षणों से आचार्य पूज्यपाद परिपूर्ण थे, जिससे ऐसी अद्भुत रचना का अमृतपान आज जन-सामान्य कर रहा है। ४. उमास्वामी / उमास्वाति का व्यक्तित्व एवं कृतित्वः व्यक्तित्व प्राचीन समय के किसी भी आचार्य के व्यक्तित्व का परिचय उनकी रचनाओं से होता था, अथवा उनके शिष्य, प्रशिष्य स्व-रचनाओं में गुरु का महिमा - मण्डन करते थे, अथवा परवर्ती ग्रंथकार आदर-ज्ञापन हेतु पूर्वाचार्यों का उल्लेख करते थे। किन्तु गृद्धपिच्छाचार्य के निजी जीवन के संबन्ध में स्वयं गृद्धपिच्छाचार्य ने कुछ नहीं लिखा है। श्वेताम्बर परंपरा में पं. सुखलालजी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में इन्हें उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के कोटिकगण की उच्चनागरी शाखा का कहा है तथा वास्तविक नाम वाचक उमास्वाति लिखा है। इन्होंने गृद्धपिच्छ विशेषण को बहुत बाद का मानते हुए 9वीं - 10वीं शताब्दी का माना है। इनका जन्मस्थल सतना के निकट स्थित नागौद नामक ग्राम कहा है। पश्चात् में ये उच्चैर्नागर शाखा में दीक्षित हुए। यह शाखा भी सतना के समीप उँचेहरा (उच्च-नगर) नामक नगर से प्रारंभ हुई है। पं. नाथूराम 'प्रेमी' ने नगरतालु (मैसूर) के शिलालेख सं.46 में उद्धृत श्लोक के आधार पर उमास्वामी को यापनीय माना है। इस श्लोक में उमास्वामी 'श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण लगा है और यही विशेषण यापनीय संघाग्रणी शाकटायन आचार्य के साथ भी जुड़ा है। इसी आधार पर पं. नाथूरामजी प्रेमी ने उन्हें यापनीय माना है। कृतित्व- दिगम्बर- परंपरा मात्र तत्त्वार्थसूत्र को ही इनकी रचना मानती है। परवर्तीकाल में लिखित उमास्वामी श्रावकाचार भी इनकी कृति मानी जाती थी, किन्तु बीसवीं शताब्दी के कई विद्वानों ने सूक्ष्मता से विचार करके इस तथ्य का निरसन किया है। जबकि श्वेताम्बर परंपरा में तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त तत्त्वार्थाधिगमभाष्य तथा प्रशमरतिप्रकरण भी इनकी रचना के रूप में स्वीकृत है। ५. ग्रंथ का नामकरणः सर्वार्थसिद्धि के प्रत्येक अध्याय के अन्त में लिखा है "इति तत्त्वार्थवत्त सर्वार्थसिद्धिकायां ... अध्यायः समाप्तः ' इस पंक्ति से ग्रंथ का नाम तत्त्वार्थ स्पष्ट होता है। पं. फूलचन्द सिद्धांतशास्त्री ने भी तत्त्वार्थ नाम ही माना है । सर्वार्थसिद्धि की पुष्पिका में (938) तत्त्वार्थवृत्ति नाम भी दिया है स्वर्गापवर्गसुखमाप्नुमनोभिरायें जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता । सर्वार्थसिद्धिरिति सुद्रिरूपात्तनामा, तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥१॥ इस श्लोक में सर्वार्थसिद्धि का अन्य नाम तत्त्वार्थवृत्ति कहा है, जिससे मूल ग्रंथ का नाम तत्त्वार्थ स्पष्ट होता है। परवर्ती आचार्य विद्यानन्द ने 'मुनिसूत्रेण' तथा 'तत्त्वार्थसूत्रकारैः '
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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