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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 19 वाचकमुख्य 'शिवश्री' थे; वाचना (विद्याग्रहण) की दृष्टि से जिसके गुरु 'मूल' नामक वाचकाचार्य और प्रगुरु महावाचक 'मुण्डपाद' थे; जो गोत्र से 'कौभीषणि' थे; जो 'स्वाति' पिता और 'वात्सी' माता के पुत्र थे; जिनका जन्म 'न्यग्रोधिका' में हुआ था और जो 'उच्चनागर' शाखा के थे; उन उमास्वाति वाचक की गुरु-परंपरा से प्राप्त श्रेष्ठ आहे उपदेश को भली प्रकार धारण करके तथा तुच्छ शास्त्रों और हतबुद्धि दुःखित लोक को देखकर प्राणियों की अनुकम्पा से प्रेरित होकर यह 'तत्त्वार्थाधिगम' नाम का स्पष्ट शास्त्र विहार करते हुए 'कुसुमपुर' नामक महानगर में रचा है। जो इस तत्त्वार्थशास्त्र को जानेगा और उसके कथनानुसार आचरण करेगा, वह अव्याबाधसुख नामक परमार्थ मोक्ष को शीघ्र प्राप्त होगा। ___डॉ. हर्मन जैकोबी ने जर्मन अनुवाद तत्त्वार्थ में तत्त्वार्थसूत्र पर कार्य किया है ये इस प्रशस्ति को उमास्वातिकृत स्वीकारते हैं। उपर्युक्त प्रशस्ति में दिगम्बर मान्य किसी भी विचारधारा से सहमति नहीं प्रतीत होती है। चाहे कुन्दकुन्द को गुरु स्वीकार करना हो, या गोत्र का विषय हो दिगम्बर प्रसिद्ध कोई भी मान्यता इस प्रशस्ति से पुष्ट नहीं होती है। चूँकि कुन्दकुन्द का समय ई.पू. प्रथम शताब्दी मान्य है, अतः इस आधार पर इनका समय भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से लेकर टीकाकार आ. पूज्यपाद के 5-6वीं शताब्दी के मध्य मानना ही उचित है। ३. सूत्रकार के रूप में उमास्वातिः दिगम्बर परंपरा में आचार्य उमास्वाति की मान्यता जन-मानस के पटल पर एक सूत्रकार के रूप में ही अंकित है। इसका एक मात्र कारण यह है कि इस परंपरा में तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई रचना मान्य नहीं है। संस्कृत भाषा में निबद्ध सूत्र शैली के इस ग्रंथ का महत्त्व तो इसका अर्थवेत्ता ही समझ सकता है। मात्र 'च' पद का प्रयोग करके इन्होंने कितने ही विषय का संक्षिप्तीकरण किया है। इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र में प्रथम बार 'च' पद का प्रयोग ग्रंथकर्ता ने किया है तथा अंतिम बार दशवें अध्याय के छठे सूत्र में इसका प्रयोग किया है। श्वेताम्बर मान्य पाठ में भी 'च' पद का प्रथम प्रयोग प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र में है तथा अंतिम प्रयोग दशवें अध्याय के छठे सूत्र में है। इसी क्रम में इस सूत्र-ग्रंथ का सबसे छोटा सूत्र 'नाणोः' है तथा सबसे दीर्घ सूत्र ‘गतिजातिशरीरांगो....' इत्यादि है। सूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने जिस प्रवीणता के साथ इस ग्रंथ का सृजन किया है, उतनी ही चतुराई से तदाधारित सर्वार्थसिद्धि के रचयिता आचार्य पूज्यपाद ने उसका स्पष्टीकरण किया है। प्रत्येक स्थल पर पूज्यपादस्वामी ने पाठक के अन्तस्थ में उत्पन्न होने वाली समस्त शंकाओं का निर्मूलन किया है। वैसे भी सूत्रशैली के ग्रंथ का प्ररूपण करना कोई सामान्य कार्य नहीं है, किन्तु आचार्य उमास्वाति का समय तथा उनसे संबन्धित पूर्वापर काल इस प्रकार की रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैयथा पातञ्जलसूत्र, योगसूत्र, सांख्यसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, ब्रह्मसूत्र, परीक्षामुखसूत्र इत्यादि। जैन साहित्य में सूत्र शैली की यह परंपरा उमास्वाति से प्रारंभ होकर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक अस्तित्व में रही है यद्यपि वर्तमान समय में इसका अभाव ही देखने में आता
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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