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________________ 18 अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 भाषा में लिपिबद्ध हैं। इनमें शिलालेख संख्या 40,42,43, 47 और 50 में गृद्धपिच्छाचार्य इस पद का उल्लेख आया है। किन्तु इसी क्रम में शिलालेख संख्या 105 और 108 में उमास्वाति नाम भी उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। शिलालेख इस प्रकार है श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्त्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार, यन्मुक्तिमार्गाचरणोद्यतानां पाधेयमयं भवति प्रजानाम्। तस्यैव शिष्योऽजनि गुद्धपिच्छद्वितीयसंज्ञस्य बलाकपिच्छ, यत्सूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके मुक्तांगनामोहनमण्डनानि ॥ इसके अतिरिक्त पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ने स्वविवेचित तत्त्वार्थसूत्र में इस ग्रंथ के रचयिता के नाम पर विस्तृत विचार किया है। इसमें उन्होंने उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर प्रचलित चार धारणाओं पर मन्तव्य प्रस्तुत किया है। ग्रंथकर्त्ता के नाम पर गृद्धपिच्छ, वाचक उमास्वाति, गृद्धपिच्छ उमास्वाति और गृद्धपिच्छ उमास्वामी ये चार विचारधारायें हैं। इनमें से पण्डितजी ने गृद्धपिच्छ नाम ही स्वीकार किया है। ग्रंथकार के नाम के संबन्ध में उपलब्ध प्राचीनतम साक्ष्यों से लेकर वर्तमान विद्वत्- विचार - अम्बुधि तक जितने भी साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, उनके आधार पर प्राचीनता की दृष्टि से आचार्य विद्यानन्द सर्वाधिक प्रामाणिक । अतः ग्रंथकार का नाम उमास्वाति तथा गृद्धपिच्छ सर्वाधिक प्राचीन प्रमाण है। हैं। दिगम्बर परंपरा इन्हें कुन्दकुन्द स्वामी का शिष्य मानती है। जबकि श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार प्रज्ञापनासूत्र के रचयिता, श्यामाचार्य के गुरु हारितगोत्रीय 'स्वाति' ही तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता हैं। 16वीं 17वीं शताब्दी के धर्मसागर की तपागच्छ की पट्टावली को यदि अलग कर दिया जाय तो अन्य किसी श्वेताम्बर ग्रंथ या पट्टावली आदि में ऐसा निर्देश भी नहीं है कि उमास्वाति श्यामाचार्य के गुरु थे। पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार तथा पं. नाथूराम प्रेमी इन दोनों विद्वानों ने दशवीं शताब्दी से पूर्व का कोई साक्ष्य उपलब्ध हुआ नहीं माना है। तत्त्वार्थसूत्र की उमास्वामिकृत प्रशस्ति इस प्रकार हैवाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण ॥ शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशांगविदः ॥ १ ॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य ॥ शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥ २ ॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौभीषिणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनार्घ्यम् ॥ ३ ॥ अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधायें ॥ दुःखार्तं च दुरागमविहतमतिं लोकमवलोक्य ॥ ४॥ इदमुच्चैर्नागरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दुब्धम्।। तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वतिना शास्त्रम् ॥५॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् ॥ सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥ ६ ॥ अर्थ- जिनके दीक्षागुरु ग्यारह अंग के धारक 'घोषनन्दि' क्षमण थे और प्रगुरु
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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