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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 प्रति सम्मान एवं बहुमान के कारण ही अकलंकदेव ने भी आचार्य पूज्यपाद का अनु - __करण कर इसकी व्याख्या न की हो। जिस प्रकार आचार्य पूज्यपाद ने व्याख्या नहीं लिखी, उसी प्रकार अकलंकस्वामी ने भी नहीं लिखी और इसी परंपरा का निवर्हन आगे आचार्य विद्यानन्द ने भी किया है। समस्त श्वेताम्बर आचार्यों ने न ही इस मंगल श्लोक को ग्रंथ में स्थान दिया है और न ही किसी तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बरीय व्याख्या में इसका वर्णन किया है। इस आधार पर अनुमान से यह कहा जा सकता है कि किन्हीं दिगम्बर विद्वान् ने तत्त्वार्थसूत्र की प्राचीन पाण्डुलिपियों के आधार पर श्वेताम्बर प्रभाव से मंगलाचरण रहित ग्रंथ की प्रतिलिपि की होगी, जिसके आधार पर बाद में अन्य पाण्डुलिपियां कराई गई होंगी और वर्तमान में उपलब्ध छपे ग्रंथों का आधार ये ही प्रतिलिपियाँ रही हों और इसी आधार पर मंगलाचरण के विषय में विवाद उत्पन्न हुआ होगा। अत: उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मंगलाचरण तत्त्वार्थसूत्र का है तथा इसके रचयिता आचार्य उमास्वाति हैं। २. तत्त्वार्थसूत्रकर्ता का नाम:__ आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में गृद्धपिच्छाचार्य को तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता कहा है- एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता। यद्यपि इस पंक्ति में 'मुनिसूत्रेण' पद प्रयुक्त है, जिससे साक्षात् तत्त्वार्थसूत्र अर्थ नहीं निकलता है और वर्तमान काल में गृद्धपिच्छ की सूत्ररूप में अथवा समग्ररूप में एक ही रचना मान्य है, जिसे हम तत्त्वार्थसूत्र नाम से संबोधित करते हैं। एक अन्य रचना आप्तपरीक्षा की स्वोपज्ञ टीका में लिखा है- 'तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वातिप्रभृतिभिः....' इस श्लोक में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम आचार्य उमास्वाति उद्धृत किया है। अतः यह निश्चित है कि आचार्य विद्यानन्द को गृद्धपिच्छ तथा उमास्वाति- ये दोनों नाम अभीप्सित थे। इनके पश्चाद्वर्ती आचार्य वीरसेन, जिनका काल (883 ई. से 923 ई.) नौवीं शताब्दी है, ने धवला के जीवस्थान के कालानुयोगद्वार में तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य का नामोल्लेख एक सूत्र में किया है- तह गृद्धपिच्छाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि 'वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य' इति दव्वकालो परूविदो। इसी क्रम में आचार्य वादिराजसूरि ने पार्श्वनाथचरित के एक श्लोक में लिखा है अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम्। पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः॥' उपर्युक्त श्लोक में ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य वादिराजसूरि ने गृद्धपिच्छ शब्द लिपिबद्ध किया है। इतना अवश्य है कि इस श्लोक में गृद्धपिच्छ का नाम आया है और उनसे जुड़ी किसी कथा का कुछ संकेत इसमें नहीं है। इन साक्ष्यों के अतिरिक्त जैनधर्म की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता के अनगिनत साक्ष्य श्रवणबेलगोला में यत्र-तत्र बहुधा मिलते हैं। ये साक्ष्य वहाँ के मंदिरों एवं पर्वतों पर शिलालेख के रूप में आज भी प्राचीन कन्नड़
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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