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________________ तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता एवं जैन वाड्.मय को उनका अवदान -डॉ. आनन्दकुमार जैन तत्त्वार्थसूत्र जैन परंपरा का सर्वमान्य एवं प्रामाणिक ग्रन्थ है, जिसे द्वितीय शताब्दी के आचार्य उमास्वाति ने संस्कृत भाषा की सूत्र शैली में निबद्ध किया है। इसमें सात तत्त्वों का विधिवत् विवेचन है। इस ग्रंथ के कर्ता के नाम और ग्रंथ के मंगलाचरण आदि अनेक विषयों पर दिगम्बर और श्वेताम्बर परंपरा में अनेक धारणायें हैं, जिन पर प्रस्तुत शोधालेख में सप्रमाण विचार-विमर्श किया गया है। इस लेख का आधार साहित्य तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, जैन शिलालेख संग्रह, पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य लिखित तात्पर्यवृत्ति की प्रस्तावना, पं. सुखलाल संघवी कृत तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना, डॉ. सागरमल जैन कृत तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परंपरा और अन्य विभिन्न शोधालेख हैं। सर्वप्रथम यहाँ ग्रंथ के मंगलाचरण पर विचार किया गया है। १. मंगलाचरण 'मोक्षमार्गस्य नेतारं...' यह श्लोक तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण है या नहीं, यह एक विवादित पक्ष है, किन्तु इसका समाधान श्रुतसागरसूरि (1487-1533ई.) की तात्पर्यवृत्ति से होता है, जहां ग्रंथ की उत्थानिका में आचार्य लिखते हैं कि-द्वैयाक नामक भव्य के प्रश्न का उत्तर देने के लिए आचार्यवर्य (उमास्वाति) इष्टदेवता को नमस्कार करते हैं अर्थात् मंगलाचरण लिखते हैं। इनसे पूर्व का एक प्रमाण आचार्य विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा में मिलता है। इस श्लोक में आप्तपरीक्षाकार ने 'सकलमलभिदे' विशेषण से इंगित किया है, जो कि तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण को सूचित करता है। साथ ही इस तथ्य का समर्थन ग्रंथ के उपसंहार से भी होता कि उन्हें (आचार्य विद्यानन्द को) यह मंगलाचरण तत्त्वार्थसूत्रकार का ही मान्य है। आचार्य अभयनन्दी ने भी तत्त्वार्थसूत्र की तात्पर्यवृत्ति में इसे ग्रंथ का मंगल श्लोक माना है। कुछ विद्वानों का मत है कि सर्वार्थसिद्धि में इस मंगलाचरण का कर्ता आचार्य उमास्वाति मान्य होते तो वे निश्चित रूप से मंगलाचरण की उत्थानिका एवं व्याख्या लिखते, अतएव मंगलाचरण एवं उसकी टीका पूज्यपादाचार्य की रचना है। यह तर्क तो ग्राह्य करने योग्य लगता है, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो सर्वार्थसिद्धि का तत्त्वार्थवार्तिक नामक वृहद् टीका लिखने वाले आचार्य अकलंकदेव इसको सर्वार्थसिद्धि पर मंगलाचरण मानकर इसकी उत्थानिका एवं व्याख्या का निरूपण अवश्य करते, किन्तु आचार्य अकलंक ने ऐसा नहीं किया। इसका कारण यह हो सकता है कि पूर्वाचार्यों के
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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