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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 11 अरति शोक, भय जुगुप्सा, पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुसंकवेद के भेद से नौ प्रकार का है। जगदुपकारी, शीलवती, तपस्वियों की निन्दा करना, धर्म का ध्वंस करना, धार्मिक कार्यों में अन्तराम करना, किसी को शीलगुण, देश संयम ओर सकल संयम से च्युत करना, मद्य-मांस आदि से विरक्त जीवों को उनसे विचकाना, चारित्र और चारित्रधारी में दूषण लगाना, संक्लेश उत्पादक वेषों और व्रतों को धारण करना, स्व-पर में कषायों का उत्पादन आदि क्रियाएं एवं भाव कषाय वेदनीय के आस्रव के कारण हैं। उक्त निमित्तों को व्यक्ति सहज में जोड़ता रहता है जिससे चारित्र मोहनीय कर्म का बन्ध होता है। इन कारणों को जानकर जो सतत इनसे बचने का उपाय सोचता है और बचता है, वही मोक्षमार्ग पर बढ़ पाता है। आयुकर्म जो कर्म जीव को नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव में से किसी शरीर में निश्चित अवधि तक रोके रखता है, उस अवधारण के निमित्त कर्म को आयुकर्म कहते हैं। आयुकर्म का उदय जीव को उसी प्रकार रोके रखता है जिस प्रकार एक विशेष प्रकार की सांकल या काष्ठ का फन्दा अपने छिद्र में पग रखने वाले व्यक्ति को रोके रखता है। आयुकर्म के चार भेद हैं नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, देवायु। बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह रखने का भाव नरकायु का आस्रव का कारण है। इसके अलावा हिंसा आदि की निरन्तर प्रवृत्ति, दूसरे के धन अपहरण का भाव इन्द्रियों के विषयों की अति आसाक्ति, मरते समय कृष्णलेश्या और रौद्रध्यान का होना आदि भी नरकायु के आस्रव के निमित्त हैं। चारित्र मोह के उदय से कुटिल भाव होता है, वह माया है। मायाचार करना ही तिर्यञ्चायु के आस्रव में निमित्त बनता है। तत्त्वार्थवार्तिकार ने विस्तार से बताया है "मिथ्यात्व युक्त अधर्म का उपेदश, अतिवञ्चना, कूटकर्म, छल-प्रपंच की रुचि, परस्पर फूट डालना, अनर्थोद्भावन, वर्ण, रस, गन्ध आदि को विकृत करने की अभिरुचि, जातिकुलशीलसंदूषण, विसंवाद में रुचि, मिथ्या जीवित्व, किसी के सद्गुणों का लोप, असद्गुणख्यापन, नील एवं कापोत लेश्या के परिणाम आध्यान और मरणकाल में अतरौद्र परिणाम इत्यादि तिर्यञ्चायु के आस्रव के कारण हैं। अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह मनुष्यायु के आस्रव के कारण हैं। विस्तार से इस प्रकार जानना चाहिए- मिथ्यादर्शन सहित बुद्धि, विनीत स्वभाव, प्रकृतिभद्रता, मार्दव-आर्जवपरिणाम, अच्छे आचरणों में सुख मानना रेत की रेखा के समान क्रोधादि सरल व्यवहार, अल्पारंभ, अल्पपरिग्रह, संतोष में रति, हिंसा से विरक्ति, दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वांगत तत्परता, कम बोलना, प्रकृति मधुरता, सबके साथ उपकार बुद्धि रखना, औदासीन्यवृत्ति, ईर्ष्या रहित परिणाम, अल्पसंक्लेश, गुरु देवता अतिथि की पूजा सत्कार में रुचि, दानशीलता, कापोत-पीतलेश्या के परिणाम सराग संयम से धर्मध्यान परिणति आदि लक्षण वाले परिणाम मनुष्यायु के आस्रव के कारण हैं।' मनुष्य भव धारण की चाह वालों को उक्त कार्य ही करना चाहिए, जिससे मनुष्यायु का आस्रव हो और बन्ध हो। आयुबन्ध होने पर छूटता नहीं है अतः मनुष्यायु प्राप्त होगी
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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