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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 ही होगी। सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम, और बालतप ये देव आयु के आस्रव के कारण हैं।' पांच महाव्रतों के स्वीकार कर लेने पर भी रागांश का बना रहना सरागसंयम है। इसका सद्भाव दशवें गुणस्थान तक है। व्रताव्रत रूप परिणाम संयमासंयम है। इसके निमित्त से गृहस्थ के त्रस हिंसा से विरति रुप और स्थावर हिंसा से अविरतिरूप परिणाम होते हैं। परवशता के कारण भूख-प्यास की बाधा सहना, ब्रह्मचर्य पालन, जमीन पर सोना, मल-मूत्र को रोकना आदि अकाम कहलाता है और इस कारण जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा है। बाल अर्थात् आत्मज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि व्यक्तियों का पञ्चाग्नितप, अग्निप्रवेश, नख-केश का बढ़ाना, ऊर्ध्वबाहु होकर खड़े रहना, अनशन अर्थात् कषायवश भूखे रहना बाल तप है। सम्यक्त्व भी देवायु के आस्रव का कारण है। अर्थात् सम्यक्त्व के सद्भाव में देवायु का बन्ध है। नामकर्म के आसव के कारण आत्मा के नमाने वाला अथवा जिसके द्वारा आत्मा नमता है, उस कर्म को भी नामकर्म कहा जाता है। नमन रूप स्वभाव के कारण ही यह कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसका मनुष्यत्व, तिर्यञ्चत्व, देवत्व और नारकादि पर्याय भेद को उत्पन्न करता है। जीव को शुभकार्यों से शुभनामकर्म और अशुभकार्यों से अशुभनामकर्म का आस्रव/बन्ध होता है। मन, वचन और काय की कुटिल वृत्तिरूप योगवक्रता तथा विंसवादन ये अशुभनामकर्म के आस्रव के कारण हैं। मन में कुछ सोचना, वचन से दूसरे प्रकार से कहना और काय से भिन्न से ही प्रवृत्ति कराना, वस्तु के स्वरूप का अन्यथा प्रतिपादन करना अर्थात् श्रेयोमार्ग पर चलने वालों को उस मार्ग की निन्दा करके बुरे मार्ग पर चलने को कहना विंसवादन है। जैसे कोई पुरुष सम्यक् अभ्युदय ओर निश्रेयस् की कारणभूत क्रियाओं में प्रवृत्ति कर रहा है। उसे मन वचन, काय के द्वारा विसंवाद कराता है कि तुम ऐसा मत करो, ऐसा करो इत्यादि प्रवृत्ति ही विसंवादन है। ये अशुभनामकर्म के आस्रव के कारण है, इससे शरीर आदि की रचना, वर्ण आदि खोटे मिलते हैं अतः ऐसे कार्यों से बचना चाहिए। योग की सरलता और अविसंवादन ये शुभनाम के आस्रव है। अथवा मन वचन काय की सरलता और अविसंवादन शुभनामकर्म के आस्रव के कारण है। धर्मात्मा पुरुषों के दर्शन करना, आदर सत्कार करना, उनके प्रति सद्भाव रखना संसारभीरुता, प्रमाद का त्याग, निश्छल चारित्र का पालन आदि भी शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं। शुभनामकर्म प्रकृतियों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर प्रकृति है अतः इसके आस्रवकारण स्वतंत्र रूप से वर्णित करते हैं- दर्शन विशुद्धि, विनय संपन्नता, शील और व्रतों में अतिचार नहीं लगाना, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, संवेग, यथाशक्तित्याग, यथाशक्ति तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकों को नहीं छोड़ना, जिनमार्ग की प्रभावना करना, और प्रवचन वत्सलता ये तीर्थकर प्रकृति के आस्रव के कारण कहे गये हैं। इन पर ग्रंथों में विस्तार से चर्चा है। यहां स्थान और आलेख विस्तारभय से पृथक् पृथक्
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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