________________
अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
की अशुभ कर्मों से निवृत्ति सराग संयम है। क्रोधादि कषायों की शुभ परिणाम भावनापूर्वक निवृत्ति करना शान्ति है। स्वद्रव्य का ममत्व नहीं छोड़ना, दूसरे के द्रव्य का अपहरण करना, धरोहर को हड़पना आदि लोभ के अन्तर्गत आते हैं। उपर्युक्त लोभ के उपरम (त्याग) को शौच कहा जाता है। इन सभी शुभ क्रियाओं से व्यक्ति सातावेदनीय कर्म का आस्रव करता है जिसके बन्ध से जीव सुखी होता है। मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण
जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। जैसे धतूरा, मदिरा, कोदों आदि का सेवन करने से व्यक्ति मूर्च्छित सा हो जाता है, इसमें इष्ट- अनिष्ट, हेय-उपादेय को जानने का विवेक नहीं रहता उसी प्रकार मोहनीयकर्म प्राणियों को इस प्रकार मोहित कर देता है कि जीव को पदार्थ का यथार्थ बोध होने पर भी वह तदनुसार कार्य नहीं कर पाता। मोहनीयकर्म सभी कर्मों में प्रधान कर्म माना गया है क्योंकि इसके अभाव में शेष कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है। जन्म-मरण की परंपरा रूप संसारोत्पादन की सामर्थ्य मोहनीय के अभाव में अन्य कर्मों की नहीं रहती। यह मोहनीय कर्म दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय भेद की विवक्षा से दो प्रकार का है।
आत्मा, आगम या पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। उस दर्शन को जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते है। गुणवान् और महत्त्वशालियों में अपनी बुद्धि और हृदय की कलुषता से अविद्यमान दोषों का उद्भावन करना अवर्णवाद है। अथवा जिसमें जो दोष नहीं है उनका उसमें उद्भावन करना अवर्णवाद है। केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद (अविद्यमान दोषों का प्रचार) दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं।
इन्द्रिय और क्रम के व्यवधान से रहित ज्ञान वाले केवली होते हैं। मोह राग द्वेषादि दोषों से रहित केवली के द्वारा कथित और बुद्धि आदि ऋद्धियों के अतिशयों के धारी गणध र के द्वारा अवधारित श्रुत कहा जाता है। रत्नत्रय से युक्त मुनियों का समूह संघ कहलाता है। सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित आगम में उपदिष्ट अहिंसा आदि का आचरण धर्म है। दिव्यता के धारक देव होते हैं। उक्त की निन्दा अवर्णवाद से ही जीव मिथ्यात्व का बन्ध करता रहता है। चारित्र मोहनीय के आस्रव के कारण
आत्मस्वररूप में आचरण करना चारित्र है उसका घात करने वाला कर्म चारित्र मोहनीय है। चारित्रमोह का कार्य आत्मा को चारित्र से च्युत करना है। क्योंकि कषायों के उद्रेक से ही आत्मा चारित्र से च्युत होता है कषायों के अभाव में नहीं। कषाय के उदय से होने वाले तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं। चारित्र मोहनीय कषाय वेदनीय
और अकषाय वेदनीय रूप होता है। कषाय वेदनीय अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन के भेद से चार प्रकार की है फिर प्रत्येक के क्रोध, मान, माया, लोभ चार प्रकार होने से 16 प्रकार का होता है। अकषाय को नोकषाय भी कहा गया है। यह हास्य, रति,