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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 भी नहीं है, किन्तु यह सब व्याख्या-सापेक्ष कथन होगा। अर्थात् हम सत्यव्रत को केन्द्र-बिन्दु में रखकर शेष चार व्रतों को सहायक मानकर भी व्याख्या कर सकते हैं। इसी प्रकार अचौर्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत और अपरिग्रहव्रत में से भी किसी एक को केन्द्र-बिन्दु में रखकर शेष चार व्रतों को सहायक के रुप में स्वीकार कर सकते हैं और इसमें किसी प्रकार की कोई हानि भी नहीं है, बशर्ते हम लक्ष्यभ्रष्ट न हों। व्याख्या के रुप में हमारी दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती है, किन्तु हमारा लक्ष्य/दृष्य/दर्शनीय एक है और वह है आत्मतत्त्व-दर्शन। इसी आत्मतत्त्व-दर्शन में स्वपर कल्याण निहित है। आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, कथन में स्याद्वाद शैली और समाज में अपरिग्रह- ये चार हमारी जैन संस्कृति के मूल स्तम्भ हैं और इन्हें यदि हम अपने जीवन में उतार सकें तो सच्चे जैन कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। किन्तु इन चारों में से हमने किसी एक को भी अपने जीवन में पूर्णतः क्या आंशिक भी नहीं अपनाया है। अतः हम कहने मात्र को जैन रह गये और जैनत्व हमसे दूर होता गया। उपर्युक्त चार स्तम्भ हमारे जैनत्व की कसौटी है, इनके पालन करने में जो खरा उतरा सो सच्चा जैन है। प्रथम तीन का संबन्ध प्रायः व्यक्तिगत जीवन से अधिक है, जबकि चौथे स्तम्भ अपरिग्रह का संबन्ध समाज से जुड़ा हुआ है। समाजदर्शन के बिना व्यक्ति-दर्शन और व्यक्तिदर्शन के बिना समाजदर्शन अधूरा है। व्यक्ति और समाज एक दूसरे पर आश्रित है। इन्हें पृथक-पृथक् रुप में देखना जैन संस्कृति का अपमान है। फिर भी व्यक्ति- व्यक्ति से मिलकर समाज बनता है, अतः व्यक्तिपरक कार्यों का असर अन्ततः समाज पर पड़ता ही है। इसीलिये समाजशुद्धि के लिये व्यक्तिशुद्धि अपेक्षित है। इसी व्यक्तिशुद्धि के लिये यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से चिंतन करें तो हमें अहिंसा से लेकर अपरिग्रह तक की यात्रा करनी होगी। अर्थात् अहिंसा हमारी यात्रा का प्रथम बिन्दु है और अपरिग्रह अंतिम पड़ाव। अपरिग्रही हुऐ बिना पूर्ण जैनत्व संभव नहीं है। जैसे लोभ कषाय क्रोधादि कषायों का मूल है वैस ही हिंसादि पापों का मूल परिग्रह है। इसलिये अपरिग्रह की कठोर साधना के बिना आत्म कल्याण संभव नहीं है। उपर्युक्त लघु पुस्तक में पं. पदमचन्द्र शास्त्री ने इन्हीं बिन्दुओं को ससन्दर्भ उजागर करने का सफल प्रयास किया है। विचारणीय प्रसंग- मूल जैन-संस्कृति अपरिग्रह नामक इसी पुस्तक के अन्त में दो लेखों का समावेश किया गया है, जो क्रमशः 'भरतक्षेत्र के सीमन्धर दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द' और 'दिगम्बरत्व को कैसे छला जा रहा है' नामक शीर्षकों में निबद्ध हैं। प्रथम लेख में लेखक पं. पदमचन्द्र शास्त्री ने आचार्य कुन्दकुन्द को ही सीमाओं को ध रण करने के कारण सीमन्धर सिद्ध किया है। उनका चिन्तन है कि बारह वर्षीय अकाल के कारण शिथिलाचार पनपा और जैनों के दिगम्बर और श्वेताम्बर- ये दो भेद हो गये। दिगम्बर और श्वेताम्बर के विवाद को सुलझाने के लिये आचार्य कुन्दकुन्द ने पर्याप्त प्रयास किया और इस प्रयास के अन्तर्गत उन्होंने बिखरी हुई मर्यादाओं/ सीमाओं की रक्षा की, जिससे वे मूलाचार्य कहलाये तथा हमें कुन्दकुन्दान्वयी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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