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________________ मूल जैन-संस्कृति : अपरिग्रह एक समीक्षा -डॉ. कमेलश कुमार जैन विगत मई (9से 11) मास में मुझे श्री गणेश वर्णी दि0 जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर (म.प्र.) के शताब्दी समारोह (सन् 1905 से 2005) में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मुझे श्रीमान पं. पद्मचन्द्र शास्त्री (वीर सेवा मंदिर, नई दिल्ली) द्वारा लिखित एक लघुपुस्तक मिली है जिसका नाम है- मूल जैन-संस्कृतिः अपरिग्रह। उक्त पुस्तक का यह तृतीय संस्करण है, जो वीर सेवा मंदिर, 21, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 द्वारा अभी सन् 2005 में प्रकाशित किया गया है, जिसका मूल्य स्वाध्याय लेखक पं. पद्मचन्द्र शास्त्री ने पुस्तक के प्रारंभ्ज्ञ में – 'समर्पण' शीर्षक में लिखा है कि- "हम इकट्ठा करने में (लगे) रहे और सब कुछ खो दिया- यह एक ऐसा सत्य है जिसे लाखों-लाख प्रयत्न के बाद भी झुठलाया नहीं जा सकता। हम जैसे-जैसे जितना परिग्रह बढ़ाते रहे वैसे-वैसे उतना जैन हमसे खिसकता गया और आज स्थिति यह है कि हम जैन होने के साधनभूत श्रावकोचित आचार-विचार में भी शून्य जैसे हो गये।" आगे वे लिखते हैं कि- "आत्मा की कथा करने वाले बड़े-बड़े वाचक भी परिग्रह-संचयन में लगे रहे और वे भी अहिंसा, दान आदि के विविध आयामों से विविध रूपों में परिग्रह-संचयन और मान-पोषण आदि में लीन रहे, जिससे वीतरागता का प्रतीक 'अपरिग्रहत्व जैनत्वं लुप्त होता रहा।" आदरणीय पण्डित जी का यह कथन हमें सोचने के लिए बाध्य करता है। क्योंकि अभी तक हम जैन-संस्कृति का मूल पञ्च पापों में प्रथम पाप हिंसा के विरोधी अहिंसा को ही मानते रहे हैं और शेष चार पापों- झूठ, चोरी, कुशील तथा अपरिग्रह के विरोधी-सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह को अहिंसाव्रत के पालन में सहयोगी। अब तक मुख्य रूप से अहिंसा को ही केन्द्र बिन्दुओं में रखकर प्रायः विचार किया जाता रहा है और इसे ही जैनधर्म का प्राण भी माना गया है। सत्य और तथ्य भी कुछ ऐसा ही है। क्योंकि पञ्च व्रतों में से किसी एक व्रत का भी पूर्णतया पालन करने से अहिंसा महाव्रत की प्रतिष्ठा स्वतः हो जाती है। अर्थात् जो पूर्ण अचौर्यव्रत का पालन करेगा, वह अहिंसक होगा। जो पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत (शीलव्रत) का पालन करेगा, वह अहिंसक होगा। जो पूर्ण अपरिग्रहव्रत का पालन करेगा, वह अहिंसक होगा। मैं समझता हूँ कि इसीलिये आचार्यों ने अहिंसा को प्रथम स्थान दिया है। यद्यपि पाँच पापों के त्याग रुप पांच व्रतों में से किसी एक को केन्द्र-बिन्दु में रखकर शेष चार व्रतों को सहायक के रुप में स्वीकार किया जा सकता है। इसमें कोई कठिनाई
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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