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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 पं. पदमचन्द्र शास्त्री का अभिमत है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने वीतराग धर्म की सीमाओं को विलुप्त होने से बचाया है, अतएव सीमाओं को धारण करने के कारण वे स्वयं सीमन्धर थे, किन्तु लोगों ने कल्पना कर डाली कि वे विदेहक्षेत्र के तीर्थ कर सीमन्धर स्वामी के पास गये थे। अभी तक की यही मान्यता रही है कि आचार्य कुन्दकुन्द विदेहक्षेत्र गये थे और विद्वानों द्वारा इसकी पुष्टि का एकमात्र आधार है आचार्य देवसेन संकलित दर्शनसार की एक गाथा, जो इस प्रकार है जड़ पउयणंदिणाहो सीमंधरसामि दिव्वणणाणेण। ण विवोहइ तो समणा कहं सुभग्गं पयाणंति॥43॥ इस गाथा की पं. नाथूराम प्रेमी कृत (अथवा परंपरा से प्राप्त) संस्कृतच्छाया इस प्रकार यदि पद्यनन्दिनाथः सीमन्धरस्वामिदिव्यज्ञानेन। न विबोधति तर्हि श्रमणाः कथं सुमार्ग प्रजानन्ति॥ पं. नाथूराम प्रेमी ने उपर्युक्त गाथा का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार किया है-विदेहक्षेत्र के वर्तमान तीर्थकर सीमन्धर स्वामी के समवसरण में जाकर श्री पद्यमनन्दिना या कुन्दकुन्द स्वामी ने जो दिव्यज्ञान प्राप्त किया था उसके द्वारा यदि वे बोध न देते तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ? इस गाथा टिप्पणी करते हुये पं. नाथूराम प्रेमी ने आज से 88 वर्ष पूर्व जैन हितैषी के मई-जून अंक के पृष्ठ 274 पर 'दर्शनसार विवेचना' शीर्षक के अन्तर्गत लिखा है कि"गाथा 43 से मालूम होता है कि कुन्दकुन्द स्वामी के विषय में जो यह किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि वे विदेहक्षेत्र गये थे और वहां के वर्तमान तीर्थकर सीमन्धर के समवसरण में जाकर उन्होंने अपनी शंकाओं का समाधान किया था सो विक्रम की नवमी-दशवीं शताब्दी में भी सत्य मानी जाती थी। अर्थात् यह किंवदन्ती बहुत पुरानी है। इसी की देखा-देखी लोगों ने पूज्यपाद के विषय में भी एक ऐसी ही कथा गढ़ ली।" पं. नाथूराम प्रेमी हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन्होंने अपने पुरुषार्थ से हिन्दी साहित्य का प्रकाशन तो किया ही है, सा ही उन्होंने अनेक संस्कृत एवं प्राकृत भाषा आदि के ग्रंथों का संपादन, मुद्रण एवं प्रकाशन किया है। उन ग्रंथों पर यथास्थान टिप्पणियाँ भी की हैं। अतः आदरणीय प्रेमी जी हमारे सम्मान के पात्र हैं। सिरमौर हैं, किन्तु जहां कहीं वे शोध-खोज में चूके हैं तो उनका विस्तृत एवं खोजपूर्ण समाधान वीर सेवा मंदिर के संस्थापक आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने समय-समय पर किया है। दर्शनसार की मूल प्राकृत गाथा 43, उसकी संस्कृतच्छाया और स्वकृत हिन्दी अनुवाद को ध्यान में रखते हुये आचार्य कुन्दकुन्द के उपर्युक्त विदेहक्षेत्र गमन को लेकर आदरणीय पं. नाथूराम प्रेमी ने जो टिप्पणी की है वह एक पक्ष है, किन्तु इतना तो सत्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथों में इस घटना का कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है और न ही कोई अस्पष्ट संकेत दिया है। वे अपने कथन को सुयकेवली भणियं' (श्रुतकेवली
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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