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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 17 छः द्रव्यों में केवल पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है, जो गलन-मिलन धर्मा है। एक पुद्गल दूसरे पुद्गल के साथ मिलकर नए पुद्गल का निर्माण कर सकता है, इसे पूरण कहा जाता है तथा एक पुद्गल-स्कंध टूट कर या विघटित होकर अन्य पुद्गल-स्कन्धों में बदल सकता है। विघटन की इस क्रिया को गलन कहा जाता है। (७) पुद्गल संख्या की दृष्टि से अनन्त है। क्षेत्र, की दृष्टि से संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है: पुद्गल के दोनों रूप-परमाणु और स्कन्ध संख्या की दृष्टि से अनन्त है। स्वतंत्र परमाणुओं की संख्या सदा अनन्त रहती है। उनमें से अनन्त परमाणु स्वतंत्र रूप धारण करते रहते हैं। (८) पुद्गल जीव को प्रभावित करता है और उससे प्रभावित भी होता है: दोनों में अन्तःक्रिया संभव है। पुद्गल द्रव्य में ग्रहण नाम का एक गुण होता है। पुद्गल के सिवाय अन्य द्रव्यों में किसी दूसरे द्रव्य के साथ मिलने की शक्ति नहीं है। एक पुद्गल अन्य पुद्गल के साथ मिलने की क्षमता तो रखता ही है, पर इसके अतिरिक्त जीव के द्वारा भी उसका ग्रहण किया जाता है। पुद्गल स्वयं जाकर जीव से नहीं चिपटता, किन्तु वह जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर उसके साथ संलग्न हो जाता है। समस्त जगत पुद्गल परमाणुओं से निर्मित है। परमाणु सूक्ष्म और अविभाज्य है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में परमाणु का लक्षण और उसके विशिष्ट गुण निम्नलिखित प्रकार से बताए गए हैं और पुद्गल द्रव्य के अणु और स्कन्ध दो भेद किए गए हैं।' (i) समस्त पुद्गल स्कन्ध परमाणु से निर्मित है और परमाणु पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश है। (ii) परमाणु नित्य, अविनाशी और सूक्ष्म है। (iii) परमाणु में रस, गंध वर्ण और दो स्पर्श (स्निग्ध अथवा रूक्ष, शीत अथवा ऊष्ण) हैं। (iv) परमाणु का अनुमान उससे निर्मित स्कन्ध से किया जा सकता है। परमाणु सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, अविभागी है, शाश्वत, शब्दरहित तथा एक है। परमाणु का आदि, मध्य और अन्त वह स्वयं ही है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं अत्तादि अत्तमज्झं अन्ततं णेव इन्दिए गेज्झं। अविभागो जं दव्वं परमाणु तं विआणाहि। अर्थात् जिसका स्वयं स्वरूप ही आदि, मध्य और अन्त रूप हो, जो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण योग्य नहीं है, ऐसा अविभागी- जिसका दूसरा भाग न हो सके, द्रव्य परमाणु है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि परमाणु का यही रूप आधुनिक विज्ञान भी मानता है। इस संबन्ध में उत्तमचन्द जैन का निम्न कथन द्रष्टव्य है- "परमाणु किसी भी इन्द्रिय या अणुवीक्षण यन्त्रादि से भी ग्राह्य (दृष्टिगोचर) नहीं होता है। इसे जैन दर्शन में केवल पूर्णज्ञानी (सर्वज्ञ) के ज्ञानगोचरमात्र माना गया है। इससे स्पष्ट है कि 'अणु' के विषय में दो हजार वर्ष पूर्व कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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