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________________ 18 अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 लिखे गए नियमसार में 'णेव इंदिए गेज्झं' अर्थात् इन्द्रिय ग्राह्य (परमाणु) है ही नहीं, यह लक्षण कितना वैज्ञानिक एवं खरा है । " मुनि प्रमाणसागर का कथन है कि वैज्ञानिक जिस परमाणु के अनुसंधान में रत हैं, जैन दर्शन के अनुसार वह अनेक परमाणुओं से संघटित कोई स्कंध (मॉलिक्यूल) है, क्योंकि उसमें इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान, अल्फा, बीटा, गामा, न्यूट्रिनो, मेसान, क्वार्क आदि अनेक कण पाये जाते हैं। अब तो उनकी संख्या बढ़कर सौ से अधिक हो गई है। जैन दर्शन के अनुसार परमाणु वह मूल कण है जिसमें कोई भेद या विभाग संभव नहीं है। परमाणु पुद्गल की अंतिम इकाई है। इसे अविभागी कहा गया है। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण परमाणु इन्द्रियों एवं प्रयोगों के विषय से अतीत है। अतः वह मनुष्यकृत नाना प्रक्रियाओं से प्रभावित नहीं होता। इस प्रकार जैनदर्शन में परमाणु का अति सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण किया गया है परमाणु की यह व्याख्या जिसमें प्राचीनता तो है ही, परमाणु विज्ञान की नव-जीवन खोजों के लिए वैज्ञानिकों को प्रामाणिक प्रेरणा भी देती है। जैन दर्शन का यह भाग सर्वथा सूक्ष्म है और इस प्रकार वैज्ञानिक प्रगति में समर्थ और सहायक बना हुआ है। संदर्भ 1. जैन तत्त्व विद्या - मुनि प्रमाण सागर, पृ. 232 2. 3. देवेन्द्रमुनि शास्त्री - जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, (क) पूरणात् पुद्गलयतीति गल:- शब्दकल्पद्रुमकोश (ख) पूरणाद् गलनाद् इति पुद्गलाः - न्यायकोश, पृ. 502 (ग) छव्विहंसठाणं बहुवहि देहेहि पूरदिति गलदिति पोग्गल । (घ) हरिवंशपुराण - 7/36- वर्णगन्धरसस्पर्शः पूरणं गलनं च यत् । (४) उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र 5/23 (च) माधवाचार्य- सर्वदर्शनसंग्रह, 4. पृ. 153 q. 157-158 5. (क) प्रवचनसार - 2/40 (ख) 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ' तत्वार्थसूत्र - 5/23 6. जैन धर्म दर्शन डा. मोहन लाल मेहता, पृ, 180-181 7. जैन दर्शन और विज्ञान, पृ. 3/3-20 8. तत्त्वार्थराजवार्तिक, भाग-2, 5/25 9. कुन्दकुन्दः नियमसार, गाथा - 26 - 10. श्री उत्तमचन्द्र जैन : 'जैनदर्शन और संस्कृति' नामक पुस्तक में संकलित निबन्ध " जैन दर्शन का तात्त्विक पक्ष परमाणुवाद, इन्दौर विश्वविद्यालय प्रकाशन, अक्टूबर - 1976 11. जैन तत्त्व विद्या भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ. 232-233. शोध छात्र- स्नातकोत्तर प्राकृत एवं जैनशास्त्र विभाग वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, 802301 (बिहार) आरा
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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