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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 चतुष्पद आदि अनेक रूपों में वर्णन किया है। गृहस्थ के लिए वाह्य परिग्रह बन्धन कारक होते हैं, क्योंकि आन्तरिक इच्छा के कारण वह इनका संग्रह करता है। परन्तु श्रमण अंतरंग परिग्रह का पूर्ण त्यागी होता है अत: उसके आवश्यक उपकरण बन्धनकारी नहीं होते। कमलचन्द्र सोगाणी कहते हैं "जिस प्रकार शुद्ध भावों के अभाव में शुभ भाव श्रमण जीवन में चमक दमक उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार बाह्य उपकरण भी।"5 परिग्रह की अधिक लालसा संग्रह-संचय का अवश्यम्भावी परिणाम समाज में ईर्ष्या, द्वेष, विग्रह, वर्ग संघर्ष का प्रचार-प्रसार है और यह सभी प्रवृत्तियां अनैतिकता की जननी है। परिग्रह की लालसा और वस्तुओं का संग्रह-संचय स्वयं व्यक्ति को भी अनैतिकता की ओर प्रेरित करता है और ऐसे वातावरण का निर्माण करता है कि समाज के अन्य लोग भी अनैतिक आचरण करें। गांधी जी ने परिग्रह परिमाण के लिए 'ट्रस्टीशिप' का प्रतिपादन किया। इसका अभिप्राय है व्यक्ति परिग्रह तो करे किन्तु उस पर अपना स्वामित्व भाव न रखे। इसके अंतर्गत व्यक्ति अपने को अनैतिक कार्य करने से दूर रख सकता है। अनैतिकता परिग्रह से ही पनपती है। जैन आचार शास्त्रियों के अनसार व्यक्ति जब तक सांसारिक वस्तुओं और उनसे उत्पन्न सुखों की ओर उदासीनता की भावना नहीं लाएंगे तब तक नैतिक जीवन की शुरूआत नहीं हो सकती है। इस प्रकार अपरिग्रह के लिए त्याग एवं निवृत्ति की भावना आवश्यक है। वस्तुतः अपरिग्रह धन और सम्पत्ति तक ही सीमित नही है। इसे जीवन के प्रति दृष्टिकोण के रूप में भी देखा जा सकता है। मनुष्य का अपने घर परिवार तथा संबन्धि त वस्तुओं के प्रति इतना अधिक मोह बढ़ जाता है कि उन सबको अपनी संपत्ति समझ बैठता है। जैन चिंतन में तपस्वी को ऐसा जीवन बिताना चाहिए कि वह अपने शरीर तथा मन को भी मोक्ष के मार्ग की बाधा समझे। श्रावक के लिए अपरिग्रह का अर्थ है- आवश्यकता से अधिक का संग्रह करने की चाह न रखना। श्रावक को इस व्रत के पालन में जो छूट दी गयी है उसका कारण यह है कि इसका कठोर पालन समाज के हित में न होगा। व्यवसाय चाहे जो भी हो, इस व्रत के पालन का अर्थ होगा अपने कर्तव्य का न केवल कुशलता से, अपितु ईमानदारी से भी पालन करना। उदाहरण के लिए व्यापारी के संदर्भ में कुशलता का अर्थ होगा व्यापार के नियमों की जानकारी तथा उसका सही प्रयोग जिससे आर्थिक साधनों में वृद्धि होती है। व्यापारी द्वारा ईमानदारी बरतने का अर्थ होगा अपने धन्धे को व्यक्तिगत सुख एवं समाज कल्याण का साधन समझना। अपने व्यवसाय में उचित अथवा नैतिक तरीकों को अपनाकर व्यापारी महत्तम लाभ उठाते हुए समाज की सेवा कर सकता है। आज के भौतिकवादी युग में सर्वथा अपरिग्रही होना गृहस्थ के लिए दुर्लभ है। भौतिक पदार्थों की चकाचौंध में मानव विविध पदार्थों को एकत्रित करने में आह्लाद का अनुभव करता है। किन्तु तथ्य यह है कि वाह्य वस्तुओं से सुख प्राप्ति की आशा मृग-मारीचिका मात्र है। संग्रह की तृष्णा दिन दूनी एवं रात चौगुनी बढ़ती जाती है फिर भी परिग्रह की तृष्णा शांत नहीं होती है। फिर भी, अपरिग्रह वृत्ति के उपाय हो सकते हैं। व्यक्ति
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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