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________________ 14 अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 अधिक साधन सामग्री के संग्रह होने पर उसे अपना न माने, उसे समाज का माने यहां तक की अपने शरीर को भी समाज एवं राष्ट्र की संपत्ति माने। बाहर से भी व्यवहार करते हुए अन्दर से अपरिग्रही रहे। आज विश्व के चारों ओर जो अशान्ति के बादल मंडरा रहे हैं और मनुष्य-मनुष्य के बीच जो बैर विरोध बढ़ रहा है यदि उसके कारणों पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय तो पता चलेगा कि उसके मूल में मानव की अनन्त इच्छाएं है। अपने मात्र साढ़े तीन हाथ के शरीर की सुविधा के लिए आलीशान कोठियां तैयार करना, शानदार बड़े बंगले बनाना, बाग-बगीचे लगाना तथा दुनिया भर के परिग्रह को वह अपने घर में जमा करता है। आज देखा जाता है कि हर घर में भाई-भाई में, पड़ोसी-पड़ोसी में तथा राष्ट्रों के बीच तनाव और वैमनस्य बना रहता है। सर्वत्र दंगे और फसाद होते ही रहते हैं। न्यायालयों में अभी जितने अभियोग विचाराधीन है उनमें से अधिकांश के मूल में परिग्रह ही है। परिग्रह की होड़ में कब क्या होगा? कुछ भी कहना कठिन है। संसार का कोई भी धर्म-दर्शन परिग्रह को स्वर्ग या मोक्ष का कारण नहीं मानता है। सभी धर्म एक स्वर में उसे हेय घोषित करते है। आज अपरिग्रह की जीवन और जगत् में अति आवश्यकता है। अर्थ- तृष्णा की आग में मानव-जीवन भस्म न हो जाय, जीवन चक्र अर्थ के ही इर्द-गिर्द न घूमता रहे, और जीवन का उच्चतर लक्ष्य ममत्व के अंधकार में विलीन न हो जाय, इसके लिए अपरिग्रह का भाव जीवन में आना ही चाहिए। भगवान महावीर ने इसीलिए अपरिग्रह पर विशेष बल दिया है। क्योंकि वे जानते थे कि आने वाला समय आर्थिक विषमता एवं आवश्यक वस्तुओं के अनुचित संग्रह वाला होगा जो सामाजिक जीवन को विघटित कर देगा। धन का सीमांकन स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य है। यदि अपरिग्रह भाव जीवन में आ जाय तो समाज की सारी विषमताएं स्वतः समाप्त हो जाय। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अपरिग्रहवाद आधुनिक युग की ज्वलन्त समस्याओं का सुन्दर समाधान है इससे व्यक्ति का जीवन उच्च और प्रशस्त बनता है और साथ ही, समाज व देश की समस्याएं भी सुलझ सकती है। ***** संदर्भ : (1) दशवैकालिकसूत्र, 6/20, (2) उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी चन्दना, पृ. 466 जैन नीतिशास्त्र: एक परिशीलन, देवेन्द्र मुनि, पृ. 324, (4) वही, पृ. 324 (5) Just as the Shubhabhavas in the absence of Shubhabhavas adorn the life of the saint, So do these Paraphernalia without any contra diction, Dr. K.C. Sogani, Ethical Doctrines in Jainism, p.123 (6) सर्वोदय दर्शन, पृ. 281-282, (7) जैन दर्शन की रूपरेखा, एस. गोपालन, पृ. 149 (8) जैन आगमः इतिहास एवं संस्कृति, डॉ. रेखा चतुर्वेदी, पृ. 211 (9) जैन दर्शन की रूपरेखा, एस. गोपालन, पृ.150 26, वेली रोड, पटना-800 001 (बिहार), फोन : 0612-2287414
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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