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________________ जैन दर्शन में अपरिग्रहः एक अनुशीलन डॉ. नरेन्द्र कुमार पाण्डेय अपरिग्रह का अर्थ है विषयासक्ति का त्याग। संसार के समस्त विषयों के प्रति राग तथा ममता का परित्याग कर देना ही अपरिग्रह है। मनुष्य के बन्धन का मूल कारण सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति ही है। अतः अपरिग्रह अर्थात् सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग मनुष्य के लिए आवश्यक है। यदि विषय त्याग नहीं किया जाय तो अपरिग्रह का पालन असंभव है। यह व्रत लालच न करने और संतोष रखने पर आग्रह करता है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक भौतिक वस्तु का संग्रह न करने से भी है। विषयासक्त होने से ही वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। इसीलिए अपरिग्रह में अनासक्ति का भाव प्रकट होता है। अनेकानेक वस्तुओं में क्षमता के कारण आसक्ति बढ़ती है। इसका त्याग ही अपरिग्रह है। 'मैं' और 'मेरा' का भाव परिग्रह की ओर प्रेरित करता है। अतः इसका त्याग अपरिग्रह है। स्त्री, पुरुष, घर, धन-धान्य आदि वस्तुओं के प्रति ममत्व रखना परिग्रह है। जिनके पास विपुल सम्पत्ति है वे अवश्य परिग्रही है परन्तु जिनके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी चित्त में बड़ी-बड़ी आकांक्षाएं लिए रहते हैं, वे भी अपरिग्रही नहीं है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है "मुनि न तो संग्रह करता है, न कराता है और न करने वालों का समर्थन ही करता है। वह पर पदार्थों से पूर्णतया अनासक्त एवं अकिंचन होता है। इतना ही नहीं, वह अपने शरीर से भी ममत्व नहीं रखता है। संयम निर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्प उपकरण अपने पास रखता है उस पर भी उसका ममत्व नहीं होता है। जैनाचार्यों ने बार-बार बल पूर्वक कहा है कि न्याय की कमाई से मनुष्य जीवन भर निर्वाह कर सकता है, किन्तु धन का भण्डार कर नहीं कर सकता। अटूट संपत्ति तो पाप की कमाई से ही भरती है। नदियां जब भरती है तो वर्षा के गन्दे जल से ही भरती है। वास्तव में अपरिग्रह एक अपेक्षा से अनासक्ति ही है। उस दृष्टिकोण से धन वैभव के अपार भण्डार होते हुए भी व्यक्ति अल्प परिग्रही हो सकता है, यदि उसके हृदय में उस वैभव के प्रति अनासक्ति का भाव हो।' जैन शास्त्रों में सिर्फ बाह्य पदार्थों को ही परिग्रह नहीं माना गया है अपितु उन भावनाओं और इच्छाओं तथा आवेग संवेगों को भी परिग्रह में ही परिगणित किया गया है, जिनके कारण उसकी धर्म-साधना, नैतिकता में और नैतिक आचार-विचार व्यवहार में तनिक भी व्यवधान पड़ता है। इस दृष्टिकोण से परिग्रह के दो भेद है- अंतरंग और वाह्य। अन्तरंग परिग्रह 14 है और सभी, नीतिशास्त्र के अनुसार अनैतिक प्रत्यय है। वाह्य परिग्रह अनगिनत प्रकार के है किन्तु आचार्यों ने उसका क्षेत्र, वास्तु, स्वर्ण, धन-धान्य, द्विपद,
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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