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________________ 96 अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं बाह्यार्थे सति, नासति । सत्यानृतव्यवस्थैवं युज्यतेर्थाप्त्यनाप्तिषु ।। 87 ।। अर्थ : बुद्धि और शब्द में प्रमाणता बाह्य अर्थ यानी ज्ञेय के होने पर होती है, बाह्य अर्थ के अभाव में नहीं। बाह्य अर्थ की प्राप्ति होने पर सत्य की व्यवस्था, और प्राप्ति न होने पर असत्य की व्यवस्था की जाती है । इसकी अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि लिखते हैं: (हम छद्मस्थों को) स्वयं अपने को ज्ञान करने के लिये बुद्धि रूपी साधन की आवश्यकता होती है, और दूसरों को ज्ञान कराने के लिये शब्दरूपी साधन की आवश्यकता होती है। बुद्धि और शब्द में प्रमाणता तभी हो सकती है, जब बाह्य पदार्थ का सद्भाव हो । 101 (घ) पुनश्च षट्खण्डागम के टीकाकार श्रीमद् वीरसेनाचार्य के ये वचन भी इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं : "ज्ञेय का अनुसरण करने वाला होने से अथवा न्यायरूप (युक्त्यात्मक) होने से सिद्धान्त को न्याय्य ( correct, right, proper ) कहा जाता है। 102 103 अथवा इस प्रकार, सुस्पष्ट है कि ज्ञेयपदार्थ में 'भूत-भविष्यत् पर्यायों का निश्चितपना' मात्र उपचार से ही कहा जा सकता है। जिन तत्त्वजिज्ञासुओं को इस विषय में अब भी कोई शंका रह गई हो, उन्हें आगम में निरूपित 'द्रव्यनिक्षेप' के स्वरूप को भली-भाँति समझना चाहिये । भूत अथवा भावी नैगमनय का आश्रय लेकर वह (द्रव्यनिक्षेप) भूत या भावी पर्याय को "वर्तमान में है' ऐसा कथन करता है; जैसे, राजा ऋषभदेव को 'जिनेन्द्र' कहना, अतीतपर्याय को स्मृति में लाकर किसी मुनि को 'राजा' कहना ।104 लोक में अथवा आगम में वचनव्यवहार के प्रयोजन को वे भले ही निभाते हों, किन्तु सर्वमान्य है कि नैगमनयाश्रित ऐसे कथन वर्तमानकालवर्ती पदार्थ की अपेक्षा उपचाररूप हैं। यहाॅ, ध्यान देने योग्य है कि द्रव्यनिक्षेप के प्रयोक्ता द्वारा, विवक्षित पदार्थ में आरोपित की गई अतीत-अनागत पर्यायें, वर्तमानकाल में उस प्रयोक्ता (व्यक्ति) के ज्ञान में होती हैं, न कि उस पदार्थ में । इसलिये, कोई भी व्यक्ति जो भूत-भविष्यत् पर्यायों के परज्ञानाश्रित / प्रत्यक्षज्ञानाश्रित निश्चितपने' को विवक्षित द्रव्य में वर्तमान में आरोपित करेगा उसका वह कथन भी, इसी प्रकार, निस्सन्देह 'उपचरित ही होगा । इस प्रकार, जिनागम के मूलतम दार्शनिक सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' के अनुरूप ही, किसी भी पदार्थ का भूत-भविष्यत्कालीन परिणमन
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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