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________________ अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 उपर्युक्त विश्लेषण द्वारा यह अब बिल्कुल जाहिर है : आधुनिक नियतिवादियों के 'एक काल में एक पर्याययोग्यता के स्वकल्पित नियम की तर्कसंगत परिणति (logical conclusion) और कुछ नहीं, बल्कि 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इस मूल सूत्र की ही विरोधिनी साबित हुई है । और, तर्कशास्त्र का यह मूल नियम है : जिस आधारभूत मान्यता (premise or hypothesis) का नतीजा अन्ततः विसंगत अथवा अन्तर्विरोधी (inconsistent or self-contradictory) निकले, वह मान्यता स्वयं ही 'विसंगतिपूर्ण / असत्य' सिद्ध हुई मानी जाती है। यहाॅ इतना और समझ लेना चाहिये कि विभिन्न चेतन - अचेतन पदार्थों की वे भविष्यत्कालीन वैभाविक शक्तियें / योग्यताएं अपनी व्यक्ति के हेतु पदार्थ के भीतर कोई पंक्ति ( queue) बनाकर नहीं खड़ी रहतीं, जैसा कि कुछ लोगों ने अपनी भ्रमात्मक धारणा बनाई हुई है। आचार्य कुन्दकुन्द एव स्वामी समन्तभद्र आदि से लगाकर सभी महान् आचार्यो के अनुसार, उन भविष्यत्कालीन वैभाविक शक्तियों / योग्यताओं में से कौन 'व्यक्त' होगी यह तदनुकूल अन्तरंग - बहिरंग कारण - सामग्री के समुच्चय के द्वारा सुनिश्चित किया जाता है। इसलिये बहिरंग कारण- सामग्री से निरपेक्ष- मात्र उपादान ही के सदभाव में किसी योग्यता की 'व्यक्ति' का निश्चितपना असम्भाव्य है, कोरी कल्पना का विषय है। इसका खुलासा इस प्रकार है : किसी विवक्षित उपादान - पदार्थ के विवक्षित कार्य के सन्दर्भ में, सुदूर भविष्य में भी सम्भावित बहिरंग कारणो की पृथक्-पृथक् पर्यायें चूँकि केवलज्ञान के विषयभूत हैं, अतः उस उपादान और सम्भावित निमित्तों की (उपादान के विवक्षित परिणमन में अनुकूल पडने वालीं) तत्तद् पर्यायों के क्षेत्रविशेष - कालविशेष में सान्निध्य के होने पर ही उनमें निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध स्थापित होते हुए, विवक्षित कार्य घटित होगा सब तथ्य “अनन्तानन्त लोकालोकों को भी, ज्ञेयों से बिना तन्मय होते हुए, जानने में समर्थ' केवलज्ञान द्वारा भले ही जाना जाए, परन्तु ऐसी 'घटना' का निश्चितपना एक-अकेले उपादानरूपी ज्ञेयपदार्थ में यदि कल्पित किया जाएगा तो वह वैसे ही हास्यास्पद होगा, जैसे कि यह कहना कि "गांधी का मरण गोडसे नामक व्यक्ति की अमुक पिस्तौल से चलाई गई अमुक गोली द्वारा होगा, यह सब गांधीरूपी उपादान में पहले से ही निश्चित रहा होना चाहिये ! '95 [स्पष्टतः हास्यास्पद होने के बावजूद भी, जो लोग ऐसी ही मान्यता बनाए हुए हैं, उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिये : 'गोडसे' नामक शरीर में रहने यह 92 -- - -
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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