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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 'चित्रभित्ति - स्थानीय' कहा है; ज्ञेयपदार्थ को आचार्यों ने कदापि चित्रपटजैसा नहीं बतलाया, यह ध्यान से ( और ईमानदारी से भी नोट करने वाली बात है । में [ हमें केवलज्ञान के विषय में समझाने के प्रयोजनवश, आचार्यों ने जहाँ चित्रपट अथवा भित्तिचित्र का सरल दृष्टान्त दिया है, वहाँ हमें यह समझना भी ज़रूरी है कि दृष्टान्त (चित्रपटादि) और दान्त (केवलज्ञान) में गंभीर अन्तर भी है । जहाँ, एक ओर, चित्रपट, भित्तिचित्र आदि ससीम ( limited) एवं संख्यात-आयामी (finite dimensional) पदार्थ हैं, वहीं, दूसरी ओर, केवलज्ञान असीम (limitless) एवं अनन्त - आयामी 7 (infinite-dimensional) भाव है, जिसमें आकाश-धर्म-अधर्मद्रव्यों, असंख्यात कालद्रव्यों, अनन्तानन्त जीवों, और उनसे भी अनन्तानन्तगुने पुद्गलों में से प्रत्येक अपनी सामान्य - विशेषात्मक सम्पूर्णता - अपने द्रव्यसामान्य, सहभावी गुणों तथा क्रमभावी पर्यायों / विशेषों सहित - युगपत् झलकते हैं; और जीव व पुद्गल द्रव्यों की वे पर्यायें स्वाभाविक एवं वैभाविक, दोनों ही जातियों की हैं । केवलज्ञानरूपी चित्रपट वा दर्पण पर प्रतिबिम्बित जो वैभाविक पर्यायें हैं वे परस्पर सापेक्षता को लिये हुए कारण-कार्य, साधन - साध्य, निमित्त - नैमित्तिक, इत्यादि - अनेकानेक जातियों के सम्बन्धों के द्वारा एक-दूसरे से कथंचित् सम्बद्ध दिखलाई पड़ती हैं। वे सभी पर्यायें समस्त अन्तर्बाह्य कारण - सामग्री के द्वारा जिस-जिस प्रकार से घटित होती हैं, उन समस्त कारण- कार्य / साधन - साध्यभावों की समग्रता सहित ही केवलज्ञान में झलकती हैं और इसीलिये, तत्तदनुसार ही केवली -प्रणीत आगम में प्रतिपादित की गई हैं । 1 -- 90 18. जो लोग पदार्थ में अनेक पर्याययोग्यताओं का सद्भाव स्वीकार नहीं करते, उनके यहाँ, ज्ञान की त्रिकालज्ञता का घटित होना अशक्य है - अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि में उनके पूर्ववर्ती, श्रीऋषभादि - पार्वान्त तेईस तीर्थंकरों के जीवनचरित्र का निरूपण हुआ है। उस निरूपण में उन तीर्थंकरों के पिछले दस-दस भवों का भी सविस्तार वर्णन आया है। ध्यान देने योग्य है कि भगवान् महावीर के काल में ये तेईस तीर्थंकर सिद्ध अवस्था में थे। एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि सर्वज्ञ महावीर स्वामी ने उन सिद्धों की संसारावस्था की पर्यायों को कैसे जाना? क्या वे वैभाविक पर्यायें अब भी उन परम पूज्य सिद्ध परमात्माओं के अस्तित्व में 'विद्यमान' कही जा सकती हैं?
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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