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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 संसारी अवस्था सम्बन्धी किन्तु अब विनष्ट हो चुकी, विभावपर्यायों के अस्तित्व को मानने का प्रसंग आ खडा होगा। अथवा, जीवो के ससारी अवस्था मे रहते हुए ही, वर्तमान मे अनुत्पन्न अर्हत्, सिद्ध इत्यादि पर्यायो का अस्तित्व मानना पड़ जाएगा। स्वामी समन्तभद्रकृत आप्तमीमासा की दसवी कारिका और उस पर भट्ट अकलकदेवकृत अष्टशती, एव आचार्य विद्यानन्दिकृत अष्टसहस्री टीकाओ मे उन परमतो मे लगने वाले दूषणो की विस्तार से चर्चा की गई है जो प्रागभाव और प्रध्वसाभाव को नही मानते है। न्यायशास्त्र के विशेष जानकार तत्त्वजिज्ञासु इस विषय को उन ग्रन्थो मे देख सकते है। हमारे लिये तो इतना ही काफी है कि जिन केवलज्ञानी महापुरुषों ने ज्ञेयों की विनष्ट व अनुत्पन्न पर्यायों को अपने विशद, दिव्य ज्ञान द्वारा हस्तामलकवत् स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष जाना है, उन्हीं केवलज्ञानियों ने ज्ञेयों में उन पर्यायों के प्रध्वंसाभाव व प्रागभाव को भी स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष देखा है और उसी का उपदेश भी दिया है, और वही उपदेश वीतरागी, सम्यग्ज्ञानी आचार्यों की परम्परा द्वारा हमें प्राप्त हुआ है। __ "किसी भी पदार्थ मे भूत-भविष्यत् पर्यायो की मौजूदगी ठीक उसी तरह होती है, जिस तरह कि सिनेमा की रील मे हजारो पिक्चर-फ्रेम्स एक-साथ मौजूद होते है" - जो 'विद्वान' इस स्वकल्पित कथन को सिद्ध करने की असफल कोशिश मे पिछले बीस-तीस बरसो से लगे रहे है (और जिसके लिये उन्होने शास्त्रो मे दिये गए दृष्टान्तो को खीचकर - "दृष्टान्त सदा आंशिकरूप से ही दार्टान्त पर घटित हुआ करता है," इस सर्वमान्य नियम की जानबूझकर अवहेलना करते हुए - उन दृष्टान्तो को अपनी व्याख्या के दौरान दृष्टान्ताभास बनाकर, अपना मन्तव्य सिद्ध करने का प्रयास किया है), उन्हे महान, आर्ष आचार्यों के उपर्युक्त उद्धरणो के उज्ज्वल आलोक मे स्वय अपने आप से एक ईमानदार प्रश्न करना चाहिये क्या वे अपने वाकचातुर्य का प्रयोग करके, वीतरागी, सम्यग्ज्ञानी आचार्यों के माध्यम से हमे प्राप्त हुई जिनवाणी को झुठलाने का प्रयास नही कर रहे हैं? यद्यपि यह ठीक है कि आचार्यों ने हमे समझाने की विवक्षावश, प्रत्यक्षज्ञान के लिये चित्रपट की उपमा दी है किंच चित्रपटीस्थानीयत्वात् संविदः,85 अथवा चित्रभित्तिस्थानीयकेवलज्ञाने भूतभाविनश्च पर्याया युगपत्प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते; तथापि उन्होने प्रत्यक्ष, दिव्यज्ञान के लिये ही ऐसे उपमान (चित्रपट आदि) का प्रयोग किया है, केवलज्ञान को ही 'चित्रपटी-स्थानीय' अथवा
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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