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________________ 88 अनेकान्त 61/1-2-3-4 हम अनेकान्तवादियों के लिये यह विषय एकदम स्पष्ट है : किसी भी पदार्थ की अतीत एवं अनागत पर्यायें, (1) प्रत्यक्षज्ञान में वर्तमान में झलकने की अपेक्षा, जहाँ उस ज्ञेयपदार्थ में उपचार से 'सद्भूत' कही जाती हैं, वहीं (2) उस ज्ञेयपदार्थ के निज–अस्तित्व की अपेक्षा, वे निश्चय से असद्भूत हैं। सुस्पष्ट है कि आचार्य जयसेन द्वारा प्रयुक्त 'व्यवहार' शब्द का अर्थ यहाँ 'उपचार ही किया जा सकता है, अन्य कुछ नहीं; क्योंकि जो पर्यायें निश्चय से किसी पदार्थ में असद्भूत है, उन्हें मात्र उपचार से ही "उस पदार्थ में सदभूत' कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं। ["भूत-भविष्यत् पर्यायें ज्ञेयपदार्थ में विद्यमान कही जाती हैं" यह कथन मान्य है क्योंकि यह केवलज्ञान का आश्रय लेकर किया गया है। तथापि जिनागम में निरूपित किये गए सिद्धान्त सार्वभौमिक और सार्वकालिक होने के साथ ही साथ; व्यक्तिपरक नहीं, प्रत्युत वस्तुपरक होने से, उन सिद्धान्तों के समस्त जीवों पर समान रूप से लागू होने के कारण; उक्त कथन की प्रकृति को, जो कि न्यायशास्त्र के बिल्कुल सरल नियम के अनुसार 'उपचरित' है – उसे तो उपचरित ही मानना पडेगा, अन्यथा मानेंगे तो मिथ्यात्व की पुष्टि का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा। ध्यान देने की बात है कि ऊपर के पैरा में पहला कथन तो ज्ञान की अपेक्षा से किया गया है, जबकि दूसरा कथन ज्ञान के विषय यानी ज्ञेयपदार्थ की स्व-अपेक्षा से किया गया है। पहला कथन ज्ञानापेक्ष अथवा (दर्शनशास्त्र की भाषा में) ज्ञानमीमांसीय कथन (epistemological statement) है; और दूसरा ज्ञेयपदार्थापेक्ष अथवा सत्तामीमांसीय कथन (ontological statement) है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि अतीत-अनागत पर्यायों के विषयक्षेत्र में, ये दो प्रकार के नयावलम्बी कथन यद्यपि एक-दूसरे के प्रतिपक्षी हैं; तथापि जिनागम का मूल जो अनेकान्त सिद्धान्त है वह उनमें परस्पर सापेक्षता स्थापित करके दोनों का सम्यक अन्वय या समन्वय कर देता है। यह विषय और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है जब हम पाते हैं कि जिनागम में अतीत पर्यायों का पदार्थ की सत्ता में प्रध्वंस-अभाव तथा अनागत पर्यायों का प्राग–अभाव बतलाया गया है। उदाहरण के लिये, कपाल/ठीकरा पर्यायमय मृद्रव्य में घट पर्याय का, अथवा दही पर्यायमय गोरसद्रव्य में दूध पर्याय का प्रध्वंसाभाव है। तथा, दूसरी ओर, मृत्पिण्ड/स्थास/कोश/कुशूल पर्यायमय मृद्रव्य में घटपर्याय का, अथवा दूध पर्यायमय गोरसद्रव्य में दही आदि पर्यायों का प्रागभाव है। यदि हम आगम-सम्मत इन सत्तामीमांसीय कथनों को स्वीकार नहीं करते हैं तो सिद्धात्म–अवस्था में, पूर्व
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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