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अनेकान्त 61/1-2-3-4
अथवा अर्थ की भी अपेक्षा नहीं रखता; जैसा कि कसायपाहुड की जयधवला टीका में श्री वीरसेनाचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है : अर्थसहायत्वान्न केवलमिति चेत्? न; विनष्टानुत्पन्नातीतानागतार्थेष्वपि तत्प्रवृत्त्युपलम्भात्। शंका : केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिये उसे 'केवल' अथवा 'असहाय' नहीं कह सकते? समाधान : नहीं, क्योंकि नष्ट हो चुके, अतीत अर्थों/पर्यायों में, और उत्पन्न न हुए, अनागत अर्थों /पर्यायों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पाई जाती है, इसलिये यह अर्थ की सहायता से होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। केवलज्ञान द्वारा अतीत और अनागत पर्यायों का ग्रहण, वास्तव में, वर्तमान अर्थ/ज्ञेय के ग्रहणपूर्वक ही होता है। तात्पर्य यह है कि वे अतीत-अनागत पर्यायें वर्तमान ज्ञेयपदार्थ में मात्र भूत शक्तियों एवं भविष्यत् शक्तियों के रूप में ही पाई जाती हैं।
ऐसा ही आशय कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार में व्यक्त करते हैं : जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स।
ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति।।39।। अर्थ : यदि अजात/अनुत्पन्न तथा प्रलयित/विनष्ट पर्यायें केवलज्ञान के प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को 'दिव्यज्ञान' कहकर कौन प्ररूपित करेगा?
इससे ठीक पहली गाथा में आचार्यश्री कहते हैं : जे णेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया।
ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा।।38 ।। अर्थात् जो पर्याय निश्चय से उत्पन्न नहीं हुई हैं, तथा जो पर्यायें उत्पन्न होकर निश्चय से नष्ट हो गई हैं, वे असद्भूत पर्यायें भी ज्ञानप्रत्यक्ष होती हैं। इसी गाथा की तात्पर्यवृत्ति में जयसेनाचार्य कहते हैं : ये नैव संजाता नाद्यापि भवन्ति, भाविन इत्यर्थः। हि स्फुटं ये च खलु नष्टा विनष्टाः पर्यायाः। किं कृत्वा? भूत्वा। ते पूर्वोक्ता भूता भाविनश्च पर्याया अविद्यमानत्वादसभूता भण्यन्ते। ते चाविद्यमानत्वादसद्भूता अपि वर्तमानज्ञानविषयत्वाद् व्यवहारेण भूतार्था भण्यन्ते। अर्थ : जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं, तथा जो पर्यायें उत्पन्न होकर निश्चय से विनष्ट हो गई हैं, वे पूर्वोक्त भूत और भावी पर्यायें विद्यमान न होने से असद्भूत कही जाती हैं। यद्यपि वे पर्यायें वर्तमानकाल में पदार्थ में अविद्यमान होने से निश्चय से असद्भूत हैं, तथापि वर्तमान ज्ञान का विषय होने से व्यवहार से अर्थात् उपचार से (ज्ञेयपदार्थ में) भूतार्थ या सद्भूत कही जाती हैं ।