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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 वास्तव में जैन ग्रन्थों के अनुसंधान के लिए ग्रन्थों में आयीं मूल गाथाओं के सही पाठों को प्राप्त करने के लिए भाषा, दर्शन, व्यापक चिन्तन और कठोर परिश्रम की नितान्त आवश्यकता है। साथ ही सहिष्णुता और धैर्य के साथ किया गया कार्य ही गुणवत्ता के आधार पर श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर पाता है। जैनदर्शन के महान् वेत्ता पं. महेन्द्र कुमार जैन, न्यायाचार्य का इस क्षेत्र में यह कथन द्रष्टव्य है : “संशोधन के क्षेत्र में हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जो भी विरोध या अविरोध दृष्टिगोचर हों उन्हें प्रामाणिकता के साथ विचारक जगत् के सामने रखना चाहिए। किसी संदिग्ध स्थल को खींचकर किसी पक्ष विशेष के साथ मेल बैठाने की वृत्ति संशोधन-शोध के दायरे को संकुचित कर देती है। संशोधन के पवित्र विचारभूत स्थान पर बैठकर हमें उन सभी साधनों की प्रामाणिकता की जांच कठोरता से करनी होगी जिनके आधार से हम किसी सत्य तक पहुँचना चाहते हैं। पट्टावली-शिलालेख, दानपत्र-ताम्रपत्र, ग्रन्थों के उल्लेख आदि सभी साधनों पर संशोधक पहले विचार करेगा। कपड़ा नापने के पहले गज को नाप लेना बुद्धिमानी की बात है।" ये विचार आज से लगभग पचपन वर्ष पूर्व इन मनीषियों ने व्यक्त किये थे किन्तु आज भी प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। इन पचपन सालों में इतना अधिक परिवर्तन हो जाना चाहिए था कि ये विचार आज की तिथि में नितान्त अप्रासंगिक लगने लगते, किन्तु समग्र मूल्यांकन करने पर ऐसा लगता है कि अभी तक जितना विकास हुआ है वह पर्याप्त नहीं है। वैचारिक सहिष्णुता का अभाव, मताग्रह, हठाग्रह तथा दुराग्रह आदि अनेक ‘ग्रह' आज भी यथावत् विद्यमान हैं। इन सबसे निजात पाने की कोशिशें तो हमें जारी रखनी ही होंगी। निष्कर्षतः हम यही कह सकते हैं कि जैन शोध-अनुसंधान को एक नयी दिशा देने के लिए हमें युग के अनुरूप प्रस्तुति देनी होगी; सरकार, समाज और साधु - इन तीनों का मुख्य रूप से इस ओर रुझान खींचना होगा, पुराने विद्वानों के अनुभव और नये विद्वानों की शक्ति को एक मंच पर लाना होगा, दोनों ओर सहिष्णुता की भावना विकसित करनी होगी। विशाल और दूरगामी परिणाम वाली योजनायें निर्मित करनी होंगी, उन पर 'टीमवर्क' कठोर परिश्रम के साथ करना ही होगा, तभी जैन विद्या, प्राकृत-अपभ्रंश भाषा एवं इनके साहित्य को व्यापकता प्रदान की जा सकती है और पूरे विश्व के मानचित्र पर उसे स्थापित किया जा सकता है।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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