SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 61,1-2-3-4 सम्पूर्ण प्राच्य विद्या के क्षेत्र में यह लाचारी व्याप्त है कि हमें अपने ग्रन्थों को समझने के लिए विदेशियों के ग्रन्थ पढ़ने पड़ते हैं। इस संदर्भ में पं. सुखलाल जी कहते हैं : __ “यूरोपीय विद्वानों ने पिछले सवा सौ वर्ष में भारतीय विद्याओं का जो गौरव स्थापित किया है, संशोधन किया है, उसकी बराबरी करने के लिए तथा उससे कुछ आगे बढ़ने के लिए हम भारतवासियों को अब अध्ययन-अध्यापन, चिन्तन, लेखन और संपादन-विवेचन आदि का क्रम अनेक प्रकार से बदलना होगा, जिसके दिना हम प्राच्य-विद्या-विशारद यूरोपीय विद्वानों के अनुगामी तक बनने में असमर्थ रहेंगे। शोध, अनुसंधान-अनुशीलन के लिए भारत में बहुत सारी जैन संस्थाएं व पुस्तकालय निर्मित हैं, किन्तु प्रायः वहाँ अच्छी व्यवस्था का, अन्य परम्पराओं के ग्रन्थों का तथा शोध करने वाले अच्छे छात्रों का अभाव ही दिखाई देता है, जिसके कारण उद्देश्य सफल नहीं होते और सामाजिक संकीर्णता उन पर हावी हो जाती है। तब शोध की बात तो दूर सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित होने के कारण शास्त्रों का बहिष्कार तक कर दिया जाता है और वे वाहर तक फेंक दिये जाते हैं।" पं. सुखलाल जी का मानना है - ____ "उच्च विद्या के केन्द्र अनेक हो सकते हैं। प्रत्येक केन्द्र में किसी एक विद्या परम्पग की प्रधानता भी रह सकती है। फिर भी ऐसे केन्द्र अपने संशोधन कार्य में पूर्ण तभी बन सकते हैं, जव अपने साथ सम्बन्ध रखने वाली विद्या परम्पराओं की भी पुस्तक आदि सामग्री वहां सम्पूर्ण तथा सलभ हो। पाली, प्राकृत, संस्कृत भाषा में लिखे हुए सव प्रकार के शास्त्रों का परस्पर इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि कोई भी एक शाखा की विद्या का अभ्यासी, विद्या की दूसरी शाखाओं के आवश्यक वास्तविक परिशीलन को बिना किये सच्चा अभ्यासी बन ही नहीं सकता, जो परिशीलन अधूरी सामग्री वाले केन्द्रों में संभव नहीं।" अन्य परम्पराओं को जानने-समझने की रुचि का अभाव रहता तो वात एक बार चल भी जाये किन्तु इतिहास गवाह है कि हमने ही अपनी भाषा - प्राकृत को न कभी अच्छे से पढ़ा और न जाना। यह हमारे द्वारा ही उपेक्षित रही। आज भी भारत का अधिकांश जैन समाज यह नहीं जानता कि ‘णमोकार मंत्र' किस भाषा में लिखा है। वे इसे संस्कृत ही समझते हैं। यही कारण है कि हमारे शास्त्रों-ग्रन्थों में से ही अर्थ का अनर्थ निकल जाता है।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy