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अनेकान्त 61/1-2-3-4
प्रयास में, वे अनेक स्थलों पर आर्ष आचार्यों के कथनों को बदलकर ऐसा रूप दे रहे हैं कि वे अपनी मान्यताओं को ठीक साबित कर सकें। उदाहरण के तौर पर, उन्हें : (क) प्रत्येक पदार्थ में, चाहे वह जड़ पदार्थ हो या चेतन, पर्यायों की 'क्रमबद्धता
की एक नवीन कल्पना करनी पड़ी है, जबकि जिनागम में 'क्रमबद्धता' का कोई प्रतिपादन ही नहीं है। (देखिये, इसी अंक में प्रकाशित : 'आत्मख्याति
टीका में प्रयुक्त क्रमनियमित विशेषण का अभिप्रेतार्थ' शीर्षक से लेख)। (ख) "विवक्षित कार्य में अनुकूल पदार्थ (या निमित्त) साधन होता है," इस
आगम-सम्मत सत्य का, अर्थात् निमित्तपदार्थ के साधनत्व का, निषेध
करना पड़ा है। (ग) “जीव को अपने विवक्षित कार्य के लिये समुचित, अनुकूल निमित्तों को
बुद्धिपूर्वक खोजना चाहिये (तथा तत्प्रतिकूल निमित्तों से बुद्धिपूर्वक बचना
चाहिये)," आगम-सम्मत इस बात का भी निषेध करना पड़ा है। (घ) “निश्चय-चारित्र का साधनभूत, चरणानुयोग का विषयभूत जो
व्यवहार-चारित्र है, उसे साधक को स्व-बुद्धि-विवेकपूर्वक धारण करना चाहिये," इस आगम-सम्मत कथन की जगह "क्रमबद्ध पर्यायों की धारा में जब वैसी पर्याय आती है, तब वह व्यवहार-चारित्र स्वतः होता है - पुरुषार्थ का तिरस्कार करने वाले, ऐसे कथनों का प्रयोग करने से भी वे
नहीं चूकते। (ङ) आर्ष आचार्यों द्वारा दी गई सीधी-स्पष्ट एवं प्रामाणिक पुरुषार्थ की
परिभाषा के स्थान पर, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम को 'पुरुषार्थ' कहना शुरु कर दिया गया है।
इस तरह किये जा रहे निरूपण के क्या परिणाम होंगे? लोग चाहकर अशुभ प्रवृत्ति करेंगे और मानेंगे कि "मेरी तो ऐसी ही पर्याययोग्यता थी; अथवा क्रमबद्ध पर्यायों की शृंखला में मेरी तो ऐसी ही पर्याय होनी थी; सो वैसा ही हो रहा है, मैं तो इसका कर्ता हूँ नहीं; क्योंकि मैं तो ज्ञान-दर्शन का कर्ता हूँ, पर्याय को मात्र जानने वाला हूँ।" इस प्रकार, द्रव्यार्थिकदृष्टि के साथ ही साथ, पर्यायार्थिक दृष्टि से भी रागादिक भावों के कर्तापने को मंजूर न करते हुए, द्रव्यार्थिक दृष्टि का एकान्त किया जाएगा। शरीर की क्रिया को चाहकर करते हुए भी उसे मात्र जड़ की क्रिया माना जाएगा। आत्मा के परिणामों और भोग-उपभोगादिक क्रियाओं के बीच निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को 'व्यवहार' कहकर मिथ्या माना जाएगा। और, ऐसे लोग अपने को सम्यग्दृष्टि समझेंगे, स्वयं को भावीसिद्ध मानेंगे।