________________
84
अनेकान्त 61/1-2-3-4
16. आचार्यों के उपदेश की सार्थकता और
नियतिवादियों की मान्यताओं में विरोध "उपादान-पदार्थ को एक नियत, निश्चित पर्याययोग्यता के अनुरूप परिणमन करना है और उसी के अनुकूल पर्याययोग्यता वाला निमित्तपदार्थ वहाँ स्वयमेव उपस्थित रहता है" - यदि ऐसा माना जाता है तो परमागम में भगवान् आचार्यों द्वारा दिया गया उपदेश निरर्थक हो जाएगा कि "हे जीव! तू 'पर' से उपयोग को हटाकर निजात्मतत्त्व के सम्मुख कर; मिथ्यात्व और अविरतिरूप परिणामों का त्याग करके तू सम्यक्त्व, एवं तदनन्तर, द्रव्यसंयमपूर्वक भावसंयम को ग्रहण कर।"
आचार्यों के करुणापूर्वक दिये गए ऐसे परमहितकारी सम्बोधनों को यदि "मात्र उपदेश देने की शैली” कहकर उनकी अवहेलना/अवज्ञा की जाती है; और "जीववस्तु का परिणमन तो नियति के अधीन है" ऐसा ही माना जाता है, क्योंकि उक्त मान्यतानुसार “एक समयसम्बन्धी मात्र एक पर्याययोग्यता निश्चित है;" तो जीवरूपी उपादान के अपने चुनाव का प्रश्न ही नहीं उठता। तब फिर, जैसा कि अनुच्छेद 3 में टिप्पणी कर आए हैं, उस जीव-पदार्थ का स्वभाव भी निश्चित ठहरा, निमित्त भी निश्चित ठहरा, पुरुषार्थ भी निश्चित ठहरा, कार्य/भवितव्य भी निश्चित ठहरा और काल भी निश्चित ठहरा। वस्तुस्थिति को यदि ऐसे ही समझा-समझाया जाता है; पंचसमवाय को कार्यव्यवस्था में यदि इसी प्रकार घटाया जाता है, तो इससे पृथक् “एकान्त नियतिवाद' फिर क्या है? इसमें पुरुषार्थ अथवा सम्यक् अनियति की सापेक्षता कहाँ घटित होती है? ____ यदि यह कहा जाता है कि "पुरुषार्थपूर्वक नियति को मानना सही है, जबकि पुरुषार्थरहित नियति को मानना एकान्तवाद है।" तो इसका उत्तर इस प्रकार होगा : "जब आपने ‘एक-अकेली पर्याययोग्यता' को ही परिणमनरूपी कार्य का नियामक मान लिया, तब आपकी मान्यता में तो पुरुषार्थ भी नियत हो गया; आपने तो 'पुरुषार्थ' और 'नियति' का अन्तर ही मिटा दिया। इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग अपनी कथनी में आप भले ही करें, परन्तु इन शब्दों से जुड़ी दो भिन्न-भिन्न अवधारणाओं (concepts) को तो आपने अपने निरूपण द्वारा एक ही कर डाला; यही तो एकान्तवाद है!"
आधुनिक नियतिवादियों द्वारा किये गए कुछ-एक प्रकाशनों का परीक्षण करने पर, हम पाते हैं कि स्व-कल्पित नियतिवाद को सही ठहराने के अपने