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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 83 देवों में,5 तथा ग्यारह-अंगरूपी सम्यग्ज्ञान के धारी लौकान्तिक देवों में भी संयम नहीं हो सकता, क्योंकि उनकी आहार–परिग्रहादिविषयक परिणति निश्चित है : उनके विमान, भवन आदि एवं वस्त्राभूषणादिरूप परिग्रह भी निश्चित हैं; तथा जितने सागरोपम वर्षप्रमाण उनकी आयु होती है, उतने हज़ार वर्षों के पश्चात उनके मानसिक आहार होता है, यह भी निश्चित है।" इसके विपरीत, कर्मभूमि में जन्मे, शुभ-अशुभ लेश्या वाले मनुष्य तो क्या, तिर्यंच भी -- उपर्युक्त चारों (तथा उपलक्षण से) अन्यान्य भी अभिलाषाओं का एकदेशतः निरसन करके – सम्यग्दर्शन के ग्रहणपूर्वक देशसंयमी हो सकते हैं, क्योंकि उनकी आहार-परिग्रहादिविषयक परिणतियां निश्चित नहीं हैं। यदि इन जीवों की पर्याययोग्यताएं निश्चित होती हों (जैसा कि हमारे कुछ बन्धुजन मानते हैं), तब तो परिग्रहपरिमाणव्रत, दिग्व्रत, देशव्रतादि की सम्भावना भी नहीं बन सकेगी, क्योंकि परिग्रहादिक की सीमाएं निश्चित करना तभी अर्थपूर्ण एवं तर्कसंगत हो सकता है, जब कि आगम-सम्मत अनेक पर्याययोग्यताओं के सिद्धान्त को स्वीकारा जाए - इच्छा-स्वातन्त्र्य को मंजूर किया जाए। कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों की आहार-परिग्रहादिविषयक परिणतियां निश्चित नहीं हैं, प्रत्युत अनियत हैं - इसी कारण मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करता हुआ एवं बहु-आरम्भ और बहु-परिग्रह आदि की मूर्छा में लिप्त होता हुआ, कर्मभूमि का मनुष्य सातवें नरक को जाने में भी समर्थ होता है; तथा, अपने पुरुषार्थ की उक्त विपरीत दिशा को सम्यकरीत्या पलटकर, तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की सम्यग् आराधना की प्रकर्षतापूर्वक वही जीव सर्वार्थसिद्धि आदि स्थान-विशेषों का, पुनश्च उसी रत्नत्रय की परम-प्रकर्षतापूर्वक मुक्ति-सौख्य का भी अधिकारी हो सकता है। ___ उपर्युक्त, आगम-सम्मत विवेचन से सुस्पष्ट है कि इच्छा-स्वातन्त्र्य अथवा पुरुषार्थ के अनियतपने के सद्भाव में ही संयम की सम्भावना बनती है, अन्यथा नहीं। इसलिये जो लोग कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों की भी पर्यायों को नियत मानते हैं, उनके यहाँ न तो संयम हो सकता है और न ही मुक्ति हो सकती है – तनिक आधुनिक नियतिवाद के प्रचारक के इस वक्तव्य पर दृष्टिपात कीजिये : "जिस जीव को जिस निमित्त के द्वारा जो अन्न-जल मिलना होता है उस जीव को उसी निमित्त के द्वारा वे ही कण मिलेंगे, उसमें एक समय मात्र अथवा एक परमाणु मात्र का परिवर्तन करने के लिये कोई समर्थ नहीं है। ... चाहे कम खाने का भाव करे या अधिक खाने का भाव करे, किन्तु जितने और जो परमाणु आने हैं उतने और वे ही परमाणु आएंगे।"
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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