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अनेकान्त 61/ 1-2-3-4
निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध का अत्यन्त वैज्ञानिक एवं विस्तृत - विवेचनायुक्त कर्मसिद्धान्त मौजूद है, अतः हमें एक नूतन नियतितत्त्व को मानने की मज़बूरी भला क्यों होने लगी? हॉ, अब अपने को सर्वज्ञ का अनुयायी कहने वाले आधुनिक नियतिवादी, सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित वस्तुतत्त्व को कैसे घुमा-फिरा कर पेश करके, उसी नियति का समर्थन करने के प्रयास में लगे हैं, यह देखकर दुःखद आश्चर्य ही हो सकता है !!
यदि कोई कहता है कि हम तो अपनी पर्यायों के नियतपने को केवल इसलिये मानते हैं कि इससे हमारी मान्यता में से पर्याय का कर्तापना मिट जाएगा; तो इसका उत्तर यह है कि निज विकारी पर्याय में कर्ताबुद्धि तो आत्मस्वभाव में सम्यक्रूप से लगने पर अपने आप मिट जाती है, क्योंकि वहाँ 'दो' के लिये अवकाश ही नहीं है। जब यह आत्मा सही अर्थों में निर्विकल्पक - ज्ञाता रहता है तो कर्ता रह ही नहीं सकता, क्योंकि “विकल्पकः परं कर्ता" ऐसा आचार्यों का वचन है ( समयसार, आत्मख्याति टीका, कलश 95 ) । इसके विपरीत, आत्मस्वभाव में स्व- परभेदविज्ञानपूर्वक सम्यक्प से लगे बिना, यदि पर्याय का कर्तापना मिटाने की मिथ्या चेष्टा की जाती है तो उससे अकर्तापने का कृत्रिम मानसिक विकल्प ही बनेगा; जिसके परिणामस्वरूप स्वच्छन्द - प्र द- प्रवृत्तिरूप आचरण होगा जो कि स्पष्ट ही अहितकर होगा । 15. इच्छा - स्वातन्त्र्य, अथवा पुरुषार्थ के अनियतत्व के सद्भाव में ही आगमोपदिष्ट संयम की सम्भावना है, अन्यथा नहीं अनादिकाल से ही इस जीव ने आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं या अभिलाषाओं - वांछाओं के संस्कार संचित किये हुए हैं। 74 स्व-पर भेद - विज्ञानपूर्वक इन संस्कारों में स्वभावबुद्धि को छोड़ते हुए, जब यह जीव बहिरंग में इन वांछाओं के विषयभूत परपदार्थों का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता है और अन्तरंग में तत्सम्बन्धी विकल्पों का निरसन करता है, तभी संयम घटित होता है, अन्यथा नहीं । 'संयम' के इस आगमानुसारी निरूपण में जो एक अनिवार्य घटक (factor) निहित है, वह है : 'इच्छा - स्वातन्त्र्य' ( freedom of will)। आहारादिक के विषय में जहाँ-जहाँ इच्छा - स्वातन्त्र्य नहीं है, वहाँ-वहाँ संयम भी नहीं हो सकता यह तथ्य सर्वमान्य है तथा आगम और युक्ति, दोनों से अबाधित है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि, शुक्ललेश्यायुक्त, प्रवीचार-रहित, तत्त्वचर्चादिक में लीन सर्वार्थसिद्धि आदि अनुत्तर - अनुदिशवासी
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