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________________ अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 13. 'एक समय में केवल एक पर्याययोग्यता' की कथित अवधारणा में जीव के पुरुषार्थ को कोई स्थान नहीं ! 80 किसी विवक्षित कार्य के सन्दर्भ में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं, उपादान और निमित्त: इतना तो सर्वमान्य है । यदि उपादान और निमित्त, दोनों में अपनी-अपनी अनेक प्रकार की पर्याययोग्यताएं हों, तभी विवक्षित कार्य में पुरुषार्थ की भूमिका बनती है, अन्यथा नहीं; चूँकि किसी समय उपादानपदार्थ अपनी किसी एक पर्याययोग्यता को प्रकट करने के लिये विवक्षित निमित्तपदार्थ की अनेक पर्याययोग्यताओं में से एक, निजपरिणमन- अनुकूल योग्यता का अवलम्बन लेकर परिणमन करे, यही तो उपादान का पुरुषार्थ है । इसके विपरीत, यदि उपादानपदार्थ में एक समय में मात्र एक ही पर्याययोग्यता हो और निमित्त पदार्थ में भी उस समय में मात्र एक ही प्रकार की उपादान - अनुकूल पर्याययोग्यता हो, तब फिर पुरुषार्थ को किसी भी प्रकार का अवकाश ही कहॉ रहा ? (इसी बात की युक्तता बैठाने के लिये, "जीवरूपी उपादानपदार्थ विवक्षित निमित्त का अवलम्बन लेता है” ऐसा आगमानुसारी कथन न करके, "वहॉ निमित्त की मात्र उपस्थिति रहती है" ऐसा स्वकल्पित कथन करने के लिये हमारे नियतिवादी बन्धुओं को मजबूर होना पडा है ।) ऐसी पुरुषार्थ - निरपेक्ष कार्य-व्यवस्था कोरा नियतिवाद नहीं तो और क्या है? 14. "कर्तृत्व - बुद्धि के अभाव हेतु नियति को मानना ज़रूरी'नियतिवादियों के इस कथित औचित्य का विश्लेषण नियतिवादियों का यह अनोखा 'सिद्धान्त है कि जो भी घटित होता है, सब कुछ पहले से नियत होता : "जिस जीवपदार्थ की जो पर्याय, जिस समय, जैसे होनी है, वैसी ही होती है, वैसा ही निमित्त वहाँ उपस्थित रहता है; और इतना ही नहीं ! वैसा ही जीव का पुरुषार्थ भी होता है!!" अपने इस तथाकथित सिद्धान्त के पक्ष में, आधुनिक नियतिवादी यह औचित्य (justification) पेश करते हैं कि उनके इस 'सिद्धान्त' पर श्रद्धा करके ही जीव कर्तापने के अहंकार का अभाव कर सकता है। इसी तरह की दैव / भाग्यवादियों की ऐकान्तिक मान्यता है : "सुख - दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक सब कुछ दैव के अधीन है; पुरुषार्थ निरर्थक है, उससे क्या सिद्धि ? पुरुषार्थ को धिक्कार हो; भाग्य ही सर्वोत्कृष्ट है ।" जो कुछ भी हो रहा है, सब भाग्य के करने से ही हो रहा है; मेरे करने का कुछ भी नहीं है ।" दैववादी, इस प्रकार, अपने जीवन की बागडोर भाग्य के भरोसे सौंपकर, "स्वयं
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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