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________________ __ अनेकान्त 61/1-2-3-4 का मुख्य नियामक पुरुषार्थ ठहरता है, न कि 'एक-अकेली' पर्याययोग्यता। 12. "एक काल में केवल एक पर्याययोग्यता' की मान्यता - अन्य भी अनेक महत्त्वपूर्ण आगमप्रमाणों के सरासर विरुद्ध "किसी जीव में विवक्षित क्षण में एक ही पर्याययोग्यता होती है जो महानुभाव इस प्रकार मानते हैं, उनकी ऐसी मान्यता, उपर्युक्त प्रमाणों के अलावा, अन्य भी बहुत से आगमप्रमाणों से सम्पूर्णतया खण्डित होती है। उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं : 1. अर्हन्त और सिद्धात्माओं के केवलज्ञान गुण की वर्तमान पर्याय क्या है, तनिक इस पर विचार करें। वे केवलज्ञानी आत्मा एक लोक एवं अलोकाकाश को जान रहे हैं, क्योंकि उससे ज़्यादा ज्ञेय उपलब्ध नहीं है। तब क्या उनकी वर्तमान पर्याययोग्यता एक ही लोक–अलोक को जानने की है? 'एक काल में केवल एक पर्याययोग्यता' की कल्पना के समर्थक हमारे बन्धुओं को इस प्रश्न का उत्तर 'हॉ' में देना पड़ेगा; परन्तु जिनागम का उत्तर नकारात्मक है, क्योंकि राजवार्तिक में भट्ट अकलंकदेव कहते हैं : यावाल्लोकालोकस्वभावोऽनन्तः तावन्तोऽनन्तानन्ता यद्यपि स्युः, तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमास्तीत्यपरिमितमाहात्म्यं तत् केवलज्ञानं वेदितव्यम् अर्थात् जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनन्त है, उतने यदि अनन्तानन्त भी लोकालोक हों तो उन्हें भी जानने की सामर्थ्य अथवा योग्यता केवलज्ञान में है, ऐसा केवलज्ञान का अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिये। संख्याप्रमाण के इक्कीस भेदों में जिस सर्वोत्कृष्ट संख्या का अस्तित्व बतलाया गया है, वह है केवलज्ञानगुण के अविभाग-प्रतिच्छेद (degrees), जो कि 'उत्कृष्ट अनन्तानन्त' हैं। केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक प्रमाण वाला न कोई द्रव्य है, न कोई क्षेत्र है, न कोई काल है, और न ही कोई भाव । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में सात गाथाओं (66-72) द्वारा द्विरूपवर्गधारा का निरूपण किया है, उनके भावार्थ को भली-भांति हृदयंगम करने पर समझ में आता है कि लोकालोक के समस्त ज्ञेय केवलज्ञान की ज्ञायकशक्ति के अनन्तवें भाग के भी अनन्तवें भागमात्र हैं। परमात्म-प्रकाश आदि ग्रन्थों में भी केवलज्ञान के लिये लता और ज्ञेयों के लिये मण्डप का दृष्टान्त दिया है। लता या बेल जितना मण्डप है उतनी ही फैलती है, किन्तु यदि मण्डप बडा होता तो बेल अधिक भी फैल सकती थी। इस प्रकार, निस्सन्देहतः स्पष्ट है कि एक लोकालोक, संख्यात ..., असंख्यात ... , अनन्त
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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