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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 75 लब्धिरूप से विद्यमान हों, दोनों ही रूपों में वे जीव की वर्तमान योग्यताएं हैं, अर्थात् पर्याययोग्यताएं। 11. कषायात्मक परिणामों सम्बन्धी अनेकानेक योग्यताएं हमारे विकारी/वैभाविक /कषायात्मक/विकल्पात्मक परिणमन के बारे मे भी वस्तुस्थिति यह है कि अपने रुचि/रुझान/स्वभाव एव चुनाव के अनुसार, भिन्न-भिन्न परपदार्थो अथवा परिस्थितियो का अवलम्बन लेकर हम हर्ष-विषादरूप अथवा राग-द्वेषरूप से परिणमित होते रहते है। यदि हम स्थूलरूप से हिसाब लगाना चाहे तो (क) पॉच इन्द्रियो और मन के विषयभूत हजारो-लाखो चेतन-अचेतन पदार्थ, (ख) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष-नपुसकवेद (ग) उक्त कषायो/नोकषायो के अनुभवन की तरतमता (अर्थात् मद-मदतर-मदतमता, तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतमता) (घ) हिसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह (ड) मन, वचन, काय (च) कृत, कारित, अनुमोदना इत्यादि को परस्पर मे गुणा करके करोडो/ अरबो भग बनेगे इस जीव के परिणामो के। (और, जब इसी विषय को केवलज्ञानगम्य सूक्ष्मता से जाना जाता है तो आश्चर्य नही कि असख्यातासख्यात भग बनते हो।) यदि ईमानदारी से विचार करेगे तो पाएगे कि हम सभी इनमे से अधिकाश विकल्प/परिणाम करने में समर्थ है। हॉ, चुनाव हमारा अपना है, हम सावधान रहकर परपदार्थो से यथाशक्ति उदासीनवृत्ति अपनाकर अपने परिणामो की सभाल भी कर सकते है। अथवा, यदि हम तथोचित भूमिका मे है तो आत्मस्वरूप मे लगकर परपदार्थ-सम्बन्धी विकल्पो का निरसन भी कर सकते है। इस प्रकार, प्रस्तुत एव पिछले दो अनुच्छेदो मे किये गए विश्लेषण से सुस्पष्ट है कि ऐसा वस्तुतत्त्व कदापि नहीं है कि एक समय में एक ही प्रकार के परिणमन की योग्यता हो, और फिर वही परिणमन होता हो। प्रत्युत, एक समय में अनेकानेक पर्याययोग्यताएं होते हुए भी जीव के रुझान/स्वभाव और प्रयत्न/पुरुषार्थ की प्रधानता की सापेक्षतापूर्वक एक ही परिणमन होता है : चाहे वह परिणमन (बहुल अंशों में) ज्ञानात्मक हो अथवा कषायात्मक । अतएव जीव के परिणमन
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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